फुरसतों का शहर बनारस…
अर्जुन तितौरिया खटीक, गाजियाबाद : कहीं जाने का मन था किन्तु यक्ष प्रश्न था कहां?
मनुष्य आखिर है क्या?
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम” : मनुष्य का अन्तर्जगत इतने प्रचण्ड उत्पात-घात, प्रपंचों, उत्थान पतन, घृणा,
सुंदर पिचाई पर कोई फिल्म क्यों नहीं बनाता…!!
तारकेश कुमार ओझा। 80 के दशक में एक फिल्म आई थी, नाम था लव –
मुश्किल चुप रहना, आसां नहीं कहना
उलझन डॉ. लोक सेतिया : लिखने का मकसद क्या है? सवाल पूछते हैं सभी दोस्त
मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं (हास-परिहास)
विषय बदल गया है साल तक जिन कृषि कानूनों के फायदे समझा रहे थे अचानक
बेअसर आंसू-आहें अनसुनी फ़रियाद (पढ़ना-लिखना)
कितनी बार वही सवाल मन में आता है बात तमाम चिंतन करने वालों की लिखने
शानदार अंत की अभिलाषा (अजीब दस्तान)
यही टीवी सीरियल के पर्दे पर नजर आया अंतिम एपिसोड में सब चंगा हो गया
किन बातों को अपनाना या छोड़ना (विरासत)
लगता है जैसे तमाम लोग मानते हैं कि हमारी सभी पुरानी ऐतहासिक धार्मिक किताबों की
ख़ुशी की तलाश में
पढ़ने से पहले समझ लो ख़ुशी पाने की बात यहां नहीं हो रही है। खुश
पृथ्वी को बचाने के लिए पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन जरूरी
राज कुमार गुप्त : हम सभी पृथ्वी के मानव जाति बाढ़, महामारी, प्रलय या अन्य