फोटो साभार : गुगल

नई दिल्ली। मेरे बड़े बाबा स्वर्गीय अभिलाख बहादुर सिंह (बप्पा बाबा) बेहद जिंदादिल इंसान थे और जहां तक मुझे पता है ‘बप्पा बाबा’ वामपंथी नहीं थे, मुसलमान तो बिल्कुल भी नहीं थे। फिर भी पता नहीं क्यों उन्हें होली के रंगों से बड़ी चिढ़ थी। फागुन का महीना वैसे तो मस्ती भरा होता है। कहते हैं कि इस महीने में ‘जेठ’ भी ‘देवर’ हो जाता है। लेकिन बप्पा बाबा के लिए यह महीना बड़ा मुश्किल भरा होता। पूरे महीने उनका रोआं-रोआं कान बना रहता। जरा सी आशंका होते ही, वो चौकन्ने हो जाते कि कोई रंग न डाल दे। इन तमाम सावधानियों के बावजूद ऐसा कभी न हुआ कि बप्पा बाबा होली से पहले दो-चार बार रंग न दिए गए हों।

चूंकि बप्पा बाबा रंगों से कुछ ज्यादा ही चिढ़ते थे। बचते और भागते रहते थे, इसलिए उन पर रंग डालना या डलवाना पूरे मोहल्ले की टॉप प्रायरिटी रहती था। उस समय तक घर की महिलाओं का दरवाजे (सहन) पर आकर या पीछा करके किसी भी पुरुष पर रंग डालना उचित नहीं माना जाता था, इसलिए बप्पा बाबा पर रंग डालने के लिए बाकायदा योजना बनाई जाती थी। सबसे पहले रंग और रंग डालने वाली की व्यवस्था की जाती थी। फिर बप्पा बाबा के लिए जाल बुना जाता था। किसी चौपार या दहलीज के दरवाजे के सामने एक खटिया रखी जाती। उसमें एक-दो लोग पहले से बैठे होते फिर बप्पा बाबा को किसी बहाने से बुलाया जाता। जैसे ही वे बातों में मशगूल होते, आल क्लियर (आक्रमण) का इशारा कर दिया जाता। बप्पा बाबा कुछ समझ पाते या रिएक्ट कर पाते इस से पहले वो रंग दिए जाते।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

लेकिन उस साल बप्पा बाबा कुछ ज्यादा ही सतर्क थे। किसी भी चौपार या दहलीज के सामने खटिया में न बैठते। बिल्कुल बीच सहन (दरवाजे) पर बैठते ताकि कोई महिला रंग डालने आए भी तो उनको रिएक्ट करने और भागने का पर्याप्त समय मिल जाये। मुहल्ले भर की तमाम कोशिशों के बावजूद उस साल बप्पा बाबा जाल में फंस ही नहीं रहे थे। ऐसा लग रहा था कि इस होली में बप्पा बाबा बेरंग ही रह जाएंगे।

लेकिन हम लोग भी कहाँ हार मानने वाले थे। इसलिए एक ‘विशेष गुप्त योजना’ बनाई गई। होली के एक दिन पहले बप्पा बाबा सहन के बीचोबीच पूरी सावधानी के साथ बैठे हुए थे। दो- चार लोग और भी वहीं बैठे हुए थे। हुक्के का दौर चल रहा था। बप्पा बाबा हर दो-चार मिनट के बाद चारों तरफ नजर घुमाकर मुआयना कर लेते कि कहीं से कोई खतरा तो नहीं। आश्वस्त होते, फिर हुक्का पीने लग जाते।
सब कुछ सामान्य सा लग रहा था।

तभी घर से एक ऊंचे कद की दुबली-पतली महिला लोटे में रंग लिए हुए बप्पा की तरफ झपटी। बप्पा बाबा पूरी तरह चौकन्ने थे, वह ‘हांय-हांय’ करते हुए भागे। अमूमन महिलाएं बप्पा बाबा पर गुरिल्ला अटैक किया करती थी। एक बार मे सफल हुई तो ठीक, नहीं तो अगले मौके की तलाश करती। लेकिन वह महिला तो बप्पा बाबा के पीछे ही पड़ गई। बप्पा बाबा आगे आगे, महिला पीछे पीछे। बप्पा बाबा जानते थे कि कोई भी महिला अपने सहन के बाहर उनका पीछा नहीं करेगी। इसलिए दूसरे घर के सहन पर पहुचते ही वह रुकने से लगे। लेकिन पीछे मुड़कर देखते हैं कि वह महिला तो रंग का लोटा लिए अभी भी उनके पीछे दौड़ी चली आ रही है। बप्पा बाबा और जोर से भागे, भागते ही गए। यहाँ तक कि भागते-भागते मुहल्ले से बाहर निकल गए, उनकी सांसे उखड़ने लगी। तब जाकर उस महिला ने उनका पीछा छोड़ा। अब तक बप्पा बाबा पूरी तरह बेदम हो चुके थे, उनकी सांसे धौंकनी सी चल रही थी।

लगभग दस मिनट बाद बप्पा बाबा सामान्य होकर वापस अपने दरवाजे की तरफ लौटे। वहां पर देखा कि सब लोग वहीं पर बैठे खूब जोर-जोर से उनकी ओर देखकर हंस रहे है और मजे ले रहे हैं। बप्पा बाबा ने अपने अनुभव से अनुमान लगाया और फिर बोले- “भाई जो भी कहो, विनोद (मेरे चाचा) की दुलहिन है बहुत बेढब!!! मेरी तो सांस ही उखड़ने लगी थी। इतना तेज़ दौड़ाने वाली औरत शायद ही पूरे गांव में दूसरी हो।” बप्पा की आंखों में प्रशंसा का भाव था।

लेकिन तभी किसी ने चुगली कर दी।
“बप्पा, वो विनोद की दुलहिन नहीं थी। आपको मुहल्ले के बाहर तक दौड़ाने वाला, साड़ी पहने हुए यही चौपटा ‘मुन्ना’ था।” अब इससे पहले कि बप्पा अपनी पनही उतारें और हमारी खातिरदारी करें, मैं वहाँ से चुपचाप खिसक लिया।

आशा विनय सिंह “मुन्ना”

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