विश्व कल्याण नहीं खुदगर्ज़ी में अंधे हम लोग

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

सोच कर दिल घबराता है कि हम कहां से चले थे हमको किधर जाना था और हम किस जगह पहुंच गए हैं। चकाचौंध रौशनी है जिस में सच झूठ का फर्क नहीं दिखाई देता है इक शोर है जिस ने पूरे वातावरण को जैसे भयानक ख़मोशी में बदल दिया है। विवेक को छोड़ डर से लालच से हम किसी की हर बात को सच मानकर दोहराने लगे हैं। सच बोलने से कतराने लगे हैं झूठ को सच बनाने लगे हैं। विश्व देश समाज मानवता के मूल्य जानकर भुलाने लगे हैं अपने स्वार्थ नज़र आने लगे हैं सभी अच्छे आदर्श किसी ठिकाने लगे हैं।

बोलने से पहले फायदे नुकसान के तराज़ू पर ज़मीर डगमगाने लगे हैं ऊंचे चढ़ने को पायदान ढूंढते खुद को नीचे गिराने लगे हैं। खुदगर्ज़ी में सामाजिक पारिवारिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करने और अपने विचारों में ज़हर भरे ऐसा समाज का निर्माण कर रहे हैं जिस में खुद भी सुरक्षित नहीं और सभी के लिए खतरा हैं। हवा पानी धरती पेड़ पौधे किसी को भी छोड़ा नहीं है जीने को खुद मौत का सामान बनाते रहे हैं। आज़ादी का अर्थ नहीं जानते देशभक्ति के मायने याद नहीं और नैतिकता ईमानदारी इंसानियत की परिभाषा बदलने लगे हैं। मनोरंजन जीवन का मकसद नहीं हो सकता है सार्थक जीवन की बात महत्वपूर्ण नहीं रह गई है।
शिक्षा स्वास्थ्य और सभी के लिए समानता की बात को छोड़ अपने लिए इनका उपयोग खास बनने को करते हुए मार्ग से भटक गए हैं शिक्षक चिकित्सक उपदेशक समाजसेवा की धर्म की बात करने वाले लोग। इस सिरे से उस सिरे तक सभी शामिल हैं अपने समाज को रसातल को ले जाने के अपराध में।  धन दौलत पैसा शोहरत भगवान बन गए हैं और ये हासिल करने वाले हमारे नायक कहलाने लगे हैं कितने खोखले आदर्श हैं आधुनिक समाज के जिस के नायक ऐसे लोग हैं जिनको बहुत मिला है फिर भी उनको और अधिक की लालसा है सब है फिर भी और की चाहत है ये सबसे गरीब होना है। हर कोई जो है ही नहीं वैसा आदर्शवादी महान कहलाने को व्याकुल है। जैसे अपने चेहरे को किसी मुखौटे से छिपाते हैं कहते उपदेश देते हैं जो खुद उन बातों पर खरे उतरने की बात नहीं सोचते हैं।
   सच कहूं तो अभी समझ नहीं आ रहा कि आज लिखना क्या है। बस यही चाहता हूं कि कुछ नया लिखा जाये और सार्थक लिखा जाये। विषय तमाम हैं मन में फेसबुक से लेकर समाज तक , देश की राजनीति से लेकर पत्रकारिता तक। अपनी गली की बात से देश की राजधानी तक। इधर उधर यहां वहां सब कहीं का हाल। बहुत ही आश्चर्य की बात है जिस किसी से भी चर्चा करो सभी जानते हैं कि कहीं भी सब ठीक नहीं है। मगर किसी को सच में इस बात से सरोकार नहीं है कि उसको कब कौन कैसे सही करेगा। क्या हम किसी और देश की बात करते हैं , ये अगर हमारा अपना वतन है तो इसकी बदहाली को देख कर हम भला चैन से कैसे रह सकते हैं। कभी कभी लगता है जैसे हम लोग संवेदनहीनता का शिकार हो गये हैं। किसी को किसी के जीने मरने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। जिसको देखो अपना ही रोना रो रहा है। ये बेहद चिंता का विषय है कि लोग शोर भले मचाते हों सब देशवासी एक हैं ये देश सभी का है और हम एक हैं मगर ये बात वास्तव में दिखाई देती नहीं है।
क्या यही आधुनिक होना है , क्या हम सभ्य नागरिक बन रहे हैं या यहां हर कोई अपने स्वार्थ की बात ही सोचता है। सवाल  बहुत हैं सामने जवाब कोई भी नहीं। एक तरफ करोड़ों लोग दो वक्त रोटी को तरसते हैं तो दूसरी तरफ कुछ लोग बेरहमी से हर चीज़ की बर्बादी दिन रात करते हैं। क्या ये देश दो हिस्सों में बटा हुआ है , विशेष लोगों को सभी कुछ और बाकी आम लोगों को कुछ भी नहीं। कितने राजनैतिक दल कितने तथाकथित नेता हैं देश में , लेकिन सभी का ध्येय सत्ता की राजनीति करना बन गया है। सब जोड़ तोड़ सारी भागमभाग कुर्सी हथियाने का एक ही मकसद लेकर। कोई विचारधारा नहीं , कोई योजना नहीं देश में सभी को एक समान जीने के हक़ मिलने की।
ये कैसा विकास हो रहा है जिसमें गरीब और अमीर के बीच अंतर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा , बल्कि और अधिक बढ़ता ही जा रहा है। क्या ये हैरानी की बात नहीं है कि जब देश समाज रसातल की तरफ जाता नज़र आता है तब हम तथाकथित पढ़े लिखे लोग कोई चिंतन करने की बजाय फेसबुक पर ट्विटर पर चैटिंग पर मौज मस्ती कर अपना समय बिताते नहीं व्यर्थ बर्बाद करते हैं। कभी काश सोचते कि यही वक़्त यही साधन यही ऊर्जा किसी और की भलाई करने पर लगाते। ऐसा लगता है हम आंख वाले अंधे बन चुके हैं , आस पास कुछ भी घटता रहे हम विचलित नहीं होते। मीडिया टीवी अख़बार सच के पैरोकार कहलाने वाले कभी निष्पक्ष और निडर ही नहीं रहते हैं बल्कि उनका उदेश्य धन कमाना और खुद को महान बताना होता है।
कभी ऐसा नहीं होता था और  कहा जाता था कि पैसा ही बनाना है तो और कोई काम कर लो अगर जनहित और समाज की देश की बात करनी है तो अपना घर जला कर भी रौशनी करो। आज वही लोग टीवी अख़बार लेखन को शुद्ध कमाई का कारोबार समझने लगे हैं। विज्ञापन ,  संख्या , टी आर पी , यही मापदंड बन गये हैं इनके। सच बोलते नहीं हैं , झूठ को सच का लेबल लगा कर बेचने का काम करते हैं। एक अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं ये सब , एक नीचे गिरता है तो बाकी भी उससे भी नीचे गिरने को तैयार हैं , अव्वल आने के लिये। लगता है इनमें यही प्रतियोगिता चल रही है कि कौन मूल्यों का कितना अवमूल्यन करता है।
धर्म जो दीन दुखियों की सेवा की बात किया करता था आज वो भी धन संपति जोड़ने और अहंकार करने की राह चल पड़ा है। हर बात में लाभ हानि का गणित होता है चाहे वो शिक्षा के विद्यालय हों , स्वास्थ्य सेवा देने वाले अस्प्ताल या फिर समाज सेवा ही क्यों नहीं हो। वो जिनके पास दौलत के अंबार लगे हैं वे भी दौलत की हवस में अंधे हो बिना जाने समझे हर उचित अनुचित रास्ता अपना रहे हैं। ये फिल्मी सितारे हों या खिलाड़ी या फिर येन केन प्रकरेण धन कमाने वाले यही आज के आदर्श बन गये हैं और इनका गुणगान किया करता है आज का मीडिया जो खुद इन के जैसा ही बनना चाहता है। जनहित , देशहित , त्याग और समाजिक मूल्यों की बातें शायद किस्से कहानी की बात लगती है या कुछ ऐसी पुरानी किताबों में लिखी हुई है जो अब उपयोगी समझी ही नहीं जाती।
राम और कृष्ण का देश नहीं रह गया ये देश अब , रद्दी के भाव बिकती हैं आदर्शवादिता की सारी बातें। सच कहूं तो अपने देश की , अपने समाज की इस बर्बादी के लिये हम सभी किसी न किसी रूप में ज़िम्मेदार हैं। चलो सब आगे बढ़ें और अपने अपने हिस्से की धूल को साफ करें। दोष उसका नहीं जो आईना दिखाता है , दाग़ अपने चेहरे पर जो हैं , साफ उनको करना होगा। इनसे अधिक हैरानी की बात बुद्धीजीवी वर्ग का ये स्वीकार करना कि कुछ बदलना संभव नहीं है , जिनके ज़हनों में अंधेरा है बहुत , दूर उन्हें लगता सवेरा है बहुत। ऐसे लोगों से इतना कहना चाहता हूं।
  कागज़ कलम नहीं लैपटॉप कंप्यूटर पर सोशल मीडिया पर लिखने लगे हैं , पढ़ने को फुर्सत नहीं अब तो हर कोई चाहता है जल्दी से समझना , लंबी बात पढ़ने को फुर्सत नहीं है। पढ़ने के बाद विचार नहीं करना बस पसंद करना तक की बात है। दो लफ़्ज़ों की कहानी भी इतनी छोटी नहीं होती है। जाने कैसी पढ़ाई की है कि पढ़ना अच्छा नहीं लगता , हर कोई बोलना चाहता है सुनता कोई भी नहीं। मुझे कहते हैं लिखा तो सबको भेजने की ज़रूरत क्या है नहीं पढ़ता कोई विस्तार से इतनी लंबी बात।
शब्द क्या है मन की भावना को इक आवाज़ देने का उपाय भीतर कुछ है बाहर आना चाहता है लब पर आते हैं शब्द तभी अर्थ समझता है सुनने वाला और शब्द सार्थक हो जाते हैं। किसी से कहना नहीं कोई जानेगा नहीं समझेगा नहीं तो लिखना किस काम का। जीवन में सबसे पहले खुद को समझना है फिर पाना है अपने आप को अपने अस्तित्व को जानकर। भगवान खुदा की बात उसके बाद की बात है मगर दुनिया के बहकावे में हम विपरीत दिशा को जाने लगे हैं। आज थोड़ा विस्तार से फिर भी कम शब्दों में संक्षेप से तमाम बातों की चर्चा करते हैं। सिलसिलेवार इक इक को लेकर चिंतन करते हैं।

राजनीति समाज और साहित्य :-

     इनको अलग नहीं किया जा सकता है। राजनीति का पहला मकसद नीति की बात को समझना है मगर आजकल नीति की कोई बात ही नहीं करता। जिसको आप राजनीति समझते हैं वो वास्तव में किसी का या शायद सभी का इक सत्ता की सुंदरी पर आसक्त होना है। वासना में जब आकर्षण से बंधे किसी के पांव छूने चाटने लगते हैं तब मुहब्बत की प्यार की बात नहीं कुत्सिक मानसिकता की बात होती है। आजकल राजनीति सत्ता पाने का मार्ग बनकर रह गई है सत्ता पाकर देश समाज की दशा बदलने की बात छूट गई है।
साहित्य अख़बार अथवा आधुनिक परिवेश में मीडिया टीवी चैनल वास्तव में किसी दर्पण की तरह होने चाहिएं। और आईने का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है उसको समाज की छवि को सामने लाना होता है। मगर यहां आईना खुद को तस्वीर समझने लगा है और वास्तविकता को नहीं देखता न दिखलाना चाहता है। फिर ये आईना किस काम का है , जब कोई दर्पण सच नहीं झूठी तस्वीर बनाकर दिखाने लगे तो उसको हटवा देना उचित है। ऐसे आईने को तोड़ना अच्छा है। जो चिंतक विचार बनकर राह दिखलाते थे समाज और राजनीति के आगे चलते थे मार्ग दिखलाते थे आज सत्ता और स्वार्थ की राजनीति के पीछे भागते हुए पागल होकर अपने मकसद से भटक गये हैं।
हम यही कर सकते हैं कि इनको कोई महत्व नहीं देकर इनके पतन को ऊंचाई समझना छोड़ नकार दें। ये खुद ब खुद मिट जाएंगे अपनी नियति को पाकर। कोई इनकी दूषित सोच को सही नहीं कर सकता है इस तालाब का सारा पानी गंदा है इसको बदलना होगा तालाब को खाली कर नया साफ पानी डालना होगा। कोई विचार ही नहीं विचारधारा की बात क्या करें सत्ता की चाह ध्येय है धन दौलत शोहरत की हवस की कोई सीमा नहीं है।

मुहब्बत रिश्ते नारी पुरुष संबंध :-

    मुहब्बत क्या है ये वो नदी है आपको लगता है बहती जाती है और अपने समंदर से मिलती है। मगर नदी क्या है नदी दो किनारों का नाम है जो कहीं नहीं मिलते , उसी जगह रहते हैं आमने सामने दो आशिक़ साथ भी और फासले को निभाते हुए भी। कोई पुल इन किनारों को जोड़ता है मगर मिलवाता नहीं है बस इस किनारे से उस किनारे कोई आता जाता है। जैसे कोई डाकिया किसी खत को आदान प्रदान करता है। बहता पानी है दोनों के बीच में और राह में कोई प्यास बुझाता है कोई मैल धोता है कोई मछली पकड़ता है कोई डुबकी लगाता है कोई तैरता है कोई डूब कर फिर उभरता नहीं है नदिया में । पानी के साथ बहते बहते जाने क्या क्या अपनी मंज़िल की तलाश में बहता हुआ किसी जगह जा पहुंचता है।
समंदर तक जाते जाते पानी जीवन का आखिरी पल समंदर से मिलने से नहीं उस में विलीन होने पर खो देता है। समंदर की गहराई आशिक़ के भीतर की घुटन को छुपाने को होती है और हम बाहर खड़े उसकी लहरों को देख समझते हैं थाह पा ली है। समंदर की ख़ामोशी को कोई हवा तोड़ने का काम करती है थोड़ी देर को तूफ़ान बनकर मगर तूफ़ान गुज़र जाता है हवाएं थम जाती हैं और समंदर खामोश ही रहता है। उसके भीतर की आवाज़ का कोई शोर नहीं होता है उसकी गहराई बहुत कुछ छुपाये रखती है।
नदी का सफर पर्वत से समंदर तक धरती का सफर है पानी की धारा जीवन में मधुर संबंध प्यार रिश्ते नाते की तरह है जिसको समझे बिना हम कोई अनुभव नहीं हासिल कर सकते हैं। प्यार की मुहब्बत की भावना की धारा हमारे भीतर बहती नहीं है और स्वार्थ की अपने मतलब हासिल करने की भावना दुश्मनी और नफरत का ज़हर भरा रहता है जिस से हम जीते हैं मगर जीवन नहीं होता है। रिश्ते प्यार त्याग और समर्पण के नहीं रहे आत्मा मन से नहीं शारीरिक और स्वार्थ से होने लगे हैं वासना और मतलब ने प्यार को भी कारोबार समझ लिया है। पाना चाहते हैं देना नहीं चाहते तो कुछ और होगा मुहब्बत नहीं हो सकती है।

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