दुनियाँ कहाँ जा रहा है
समाज का माहौल बिगड़ता जा रहा है
कैसे समझाएं समझ नहीं आ रहा है,
सब कुछ जान बुझकर भी लोग
अंधेपन का नाटक खेले जा रहा है।
हालात हद से ज्यादा गंभीर होता जा रहा है
सतर्कता से हर कोई मुँह मोड़े जा रहा है,
दर्पण तो दिखा रहे है कुछ चिंतित लोग
पर सामने आँखें मूँदें नजर आ रहा है।
सच कहूँ सच्चाई कहीं खोए जा रहा है
बुराईयों का दबदबा बढ़ता ही जा रहा है,
यहाँ भयभीत होकर लोग उसूलों से
खुद को छिपाकर भागे जा रहा है।
हाल सारे बेहाल होता ही जा रहा है
संघर्ष करने का साहस जुटा नहीं पा रहा है,
आने वाले पीढ़ी से अब यहीं कहेंगे हम
ऐ दुनियाँ नाश की ओर जा रहा है।
गोपाल नेवार, गणेश सलुवा ।