।।सुबह की रोशनी।।
राजीव कुमार झा
उसके
महावर से रंगे पैर
आलस्य से दूर
उसकी गर्दन
गर्व से ऊंचा
धरती का माथा
वनभूभि को पार कर
ऊबड़ खाबड़
रास्तों से बहती
कलकल नदी सरीखा
यह जीवन
शहर की भागदौड़ में
खोयी जिंदगी
अकेली कहां खत्म हो
जाती
हवा इसके बारे में
कुछ भी नहीं बताती
याद आती शाम
तुम्हारे संग
घर लौट आती
सागर की लहरें
रातभर डूबती उतराती
रोशनी
सुबह की यह रोशनी
रुपहली