श्रीराम पुकार शर्मा की कलम से : ‘शरद् विगत भयो, आगम शिशिर ऋतु’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। शरद् ऋतु के मंद-मंद शीतल सुहावन मौसम, जलाशयों में खिले हुए सुंदर पंकज, उसपर गुँजार करते भँवर, बगुलों की रट और पक्षियों के मनोभावन कलरव संयुक्त रूप से मानवीय चित को निरंतर चुराने का उपक्रम करते हैं। शरद पूर्णिमा को रातभर मिट्टी के पात्र में खीर को चंद्रमा की चाँदनी में रखने पर सुबह तक उसकी मधुरता कई गुणी और बढ़ जाती है। उस बासी खीर में ‘स्वर्गीय अमृत भोग’ का आभास होता है। इस ऋतु में ‘गोरस’ का परिमाण भी बढ़ जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे ‘अमृत संयोग ऋतु’ भी कहा जाता है।

इसके साथ ही मानवीय शरीर के अनुकूल समवातावरण को साथ लिए हेमंत ऋतु का आगमन होता है। हमारे देश में हेमंत ऋतु का समय काल कार्तिक और अग्रहायण मास अर्थात मध्य अक्टूबर से मध्य दिसंबर का होता है। शरीर के अनुकूल मौसम और रात्रि में एक चादर की शीतलता के कारण मूल जाड़ा के पूर्व का इसे ‘गुलाबी जाड़ा’ भी कहा जाता है। चुकी सूर्य हमारी उतरी गोलार्द्ध से क्रमशः दूर होते चले जाते हैं। अतः दिन क्रमशः छोटे और रात लंबी होने लगती है। यह अपने सुहावने एवं लुभावने मध्यम ‘गुलाबी ठंड’ के कारण बिरहिणी के हृदय में प्रतिपल टीस उत्पन्न करने लगती है।
‘अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर रैनि जाइ किमि काढ़ी।।’

हेमंत में निर्मल नील स्वच्छ गगन मण्डल में कहीं-कहीं श्वेतवर्ण मेघ टुकड़ों में दिखाई दे जाते हैं। उनका प्रतिबिंब सरोवर में कमलों और हंसों के साथ अति प्रिय लगता है। सूखी भूमि चीटियों से लगभग भर जाती है। धरती पर यत्र-तत्र फैले जल लगभग सुखते जाते हैं। धरती सर्वत्र ही हरित धानी में लिपटी दिखाई देने लगती है। इस ऋतु में भरपूर प्रकृति ऊर्जा और शरीर की उच्च प्रतिरक्षा शक्ति मनुष्य को वैद्य और चिकित्सकों से लगभग दूर ही किए रहते हैं। कृषक भी अपने खेतों में लहलहाते फसलों को देखकर वर्ष भर के दु:ख-संताप को भूल जाते हैं। चतुर्दिक मार्ग खुल जाते हैं। हित-कुटुंब से मिलना-जुलना और आवागमन बढ़ जाता है। फलतः यह ऋतु भ्रमणकारियों द्वारा बहुत पसंद किया जाता है।

इसके पूर्व नवरात्रि के आगमन से प्रारंभ हुए देवी माईया के सामूहिक त्योहारिक लोक-गीत ‘निमिया के डार माईया झूलेली झुलनवा कि झूली झूली न’ फिर दीपावली के आते ही घर-घर ‘आयो रामचन्द्र जी अवध में, मनी सगरो दीपावली अवध में’ और दीपावली को पार होते ही घर-घर से छठ पर्व के परंपरिक लोक-गीत ‘काँच बाँस के बहँगीया, बहँगी लचकत जाए’ मन को प्रतिपाल भक्तिमय बना देते हैं। इसके साथ ही कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार की पूर्णता कार्तिक पूर्णिमा स्नान से हो जाती है। इन त्योहारों से इस ऋतु में यह धरती मानवीय आध्यात्मिकता के कारण ‘देवलोक’ में परिणत हो जाती है। ब्रज में एक कहावत भी प्रचलित है,-
‘आठ माघ नौ कातिक नहावै, दस वैषाख अलौनौ खावै, सीधौ वैकुंठ जावै।’

लेकिन ठीक इसके बाद ही चतुर्दिक तीव्र और तीखा जाड़े को साथ लिए शीत ऋतु का आगमन होता है। मूलतः पुस और माघ माह (मध्य दिसंबर से मध्य फरवरी) में हमारे देश में शीत ऋतु का प्रबल एकछत्र साम्राज्य स्थापित रहता है। चतुर्दिक तीव्र जाड़ा, कोहरा, पाला और बर्फीली तीक्ष्ण हवाओं को परिभाषित करता इसका नाम ‘शिशिर ऋतु’ ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इस ऋतु मे शिशिर के सैन्य दल में जाड़ा, पाला, बर्फीली हवा आदि शामिल होकर बड़ी प्रबलता के साथ धरती पर आक्रमण कर देते हैं। जिससे भयभीत होकर दिन का परिमाण छोटा, पर रातें उनसे सह पर इतराकर और ज्यादा घनी और लंबी होने लगती है। कब सुबह हुई कि शाम हो जाती है। दोपहर का तो कोई अता-पता ही नहीं रह जाता है। सुबह और शाम शीतलता का एक अलग ही एहसास दिलाने लगते हैं। प्रतीत होता है कि शीत के प्रकोप से सूरज के सातों घोड़े भी दुबक कर किसी कोने में जा छुपे हैं। ऐसे में सूर्य किसी दुर्बल वृद्ध की भाँति लाठी के सहारे अति संक्षिप्त दक्षिण आकाशीय मार्ग से गुजरते हुए कभी-कभार दिखाई पड़ जाते हैं। कभी-कभी तो धुंध-कोहरे में लिपटे सूर्य को चंद्र और दिन को रात्रि समझकर पशु-पक्षी भी धोखा जाते हैं और अपने घोंसले से भी न निकल पाते हैं। जैसे कि हमारे कई नेताओं को गाँधी टोपी में देख जनता उनकी सज्जनता के भ्रम में धोखा खा ही जाती हैं। कभी-कभी तो लोग सूर्यदेव को आकाश में ढूँढ भी नहीं पाते हैं और कभी दिखाई भी पड़ जाएँ, तो ‘सेनापति’ जैसे लोग उन्हें चंद्र के भ्रम में नजर अंदाज ही कर देते हैं।
‘शिशिर में ससि को, सरुप पवै सबिताऊ, घाम हूँ में चाँदनी की दुति दमकति है।’

क्या करे, प्रकृति भी? ठंड-पाला से बचने की हड़बड़ी में वह कोहरे का दोशाला ही ओढ़ लेती है, जिसमें धरती, गगन, सूरज, चाँद, सितारे, पवन, खेत-खलिहान, धनी-निर्धन, मेहनतकश किसान, मजदूर सब के सब कुछ गर्मी पाने की चाहत में जबरन घुस ही पड़ते हैं। लेकिन यह कोहरे का दोशाला गर्मी के बदले सबकी हड्डियों को ठिठुरा देती है। उनके दाँतों किटकिटाने लगते हैं। ठंड-पाला से कोई नहीं बच पाता है, क्या गाँव, क्या शहर, पथ-पगडंडियाँ, सड़कें, नदी, सरोवर सबके सब आक्रान्त हो जाते हैं। पग भर भी तो पथ दिखाई न देता है, ऐसे में कोई भला घर से निकले भी तो कैसे? घर से बाहर कदम रखते ही बर्फीली हवाएँ तीर के समान शरीर को बेधने लगती हैं। बेचारी आग भी कुछ ही समय में इनसे परास्त होकर ठंडी हो जाती है।
‘भीतर घरों के लोग घुसते ही जाते भीत, आग जल-जल कर ठंडी पड़ी जाती है।’

ठिठुरती रातों में ब्रह्म मुहूर्त से ही दाँत भी इसी लालसा में किटकिटाने लगते हैं कि कब प्रभात हो, कब सूरज का दर्शन हो, कब कंपकंपाती जाड़ा बदन को छोड़े? पर सारी बातें, उल्टी ही साबित होती हैं। स्वयं सूरज ठंड और कोहरे की चादर ओढ़े अपने कंपित पग से आकाश में सभीत बाहर निकलते हैं। पर बाहर निकलते ही कोहरा, शीतल बयार, पाला आदि उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और जबरन ही सूर्य को पश्चिम क्षितिज के अस्ताचल माँद के भीतर कर बाहर पहरा बैठ देते हैं। यही तो समय की बात है, कभी-कभी निशाचर शक्तियाँ प्रबल हो ही जाती है। कभी-कभी शेर को भी कई भेड़िये मिलकर चुनौती दे ही देते हैं। आबाल-वृद्ध, नर-नारी, पशु-परिंदे आदि सब के सब हैरान और परेशान हैं। अरे भाई! धूप किधर रह गई है! अभी तक पहुँची ही नहीं! मिले तो, जरा हमारे पास भी भेजो। उससे मिले तो कई दिन हो गए हैं। उसके बिना हम भी तड़प रहे हैं। वह आए तो कुछ सकून मिले!

ऐसे में हड्डी सहित मज्जा को प्रकंपित करने वाली शीतल बयार पाला के संग किसी दुष्ट की भाँति निडर होकर घर-आँगन, गली-मुहल्ले, खेत-खलिहान, गाँव-नगर, नदी-नाले, तालाब-पोखरे अर्थात सर्वत्र ही दिन-रात भौड़ा तांडव मचाने लगती है। उसके आगे किसी का बाहर निकलना ही मुश्किल हो जाता है। अब तो इनका आतंक और भी भयावह हो जाता है। सन्दूक के सभी कपड़े शरीर पर और बिस्तर पर होने पर भी उनकी और कमी महसूस होने लगती है। कुछ बोलने के लिए मुँह खोलो, तो आवाज के पहले ‘धुआ’ ही निकलता है। पता नहीं पेट में कौन-सी भट्ठी जल रही है? ऐसे में आलाव (आग) ही सबका प्यारा बनकर सबके अलसाय मन को अपने करीब बटोरे रहता है। जो भी हो, अपनों के साथ बैठना, हाथ सेंकना, मन को और रिश्तों को एक नया ऊर्जा प्रदान करता है। घर-घर की बातें, कुछ राजनीति की बातें और कुछ कहा-सुनी भी चलते ही रहते हैं। अलाव में पकाये गए गरम-गरम आलू, भले ही बाहर से ठंढे हो, पर भीतर की गर्मी गले से लेकर पेट की अतड़ियों को जलाते हुए भी स्वाद की दृष्टि से छप्पन भोग को भी पछाड़ देते हैं।

उत्तरी पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसे ही समय अक्सर हिमपात होने लगता है। शीतकालीन बर्फीली हवाएँ कहर बनकर सबको काटने दौड़ पड़ती है। शिशु और किशोर तो किसी तरह से अपने बहते-सुड़सुड़ाते नाक में ही इसे रोकने का प्रयास करते हैं, परंतु दुर्बल वृद्धजन इसकी प्रबलता के सम्मुख अक्सर पराजित हो ही जाते हैं। भले ही पर्याप्त साधन के कारण अमीरों के लिए शीत ऋतु सुखद मानी जाती है। पर गरीब खेतिहर और मजदूर क्या करे? खेतों में तैयार फसल कोई बहाना न सुनना चाहती है। फिर ठिठुरती हाथों में हसुआ थामे धान की कटाई करनी ही पड़ती है। बर्फबारी, बर्फ जमने, जमा देने वाले तापमान और ठंडी हवा हड्डी को ठिठुराने लगते हैं, पर हाथ का हसुआ चलते ही रहता है। धुंध, कोहरा, बर्फीली सड़कें यातायात दुर्घटनाओं में वृद्धि का कारण बन जाती हैं। यह शीत ऋतु ‘भ्रामक हत्यारा’ बनकर अनगिनत लोगों की जान ले ही लेता है।
पूस जाड़ थर-थर तन काँपा। सूरुज जाइ लंकदिसि चाँपा॥
लागेउ माघ परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़ काला॥

शिशिर ऋतु में सर्वत्र ही ओस की चाँदी-सी जालीदार परतों के कारण सभी दिशाएँ धवल हो जाती हैं, मानो वसुंधरा और अंबर दोनों परस्पर मिलकर एकाकार हो गए हों। खेतों में पसरे फसलों और जहाँ-तहाँ बिखरे हरियाली घासों को भी ओस अपनी चाँदनी चादर से ढाँक लेती है। खेतों में गेहूँ, जौ, ज्वार, बाजरा कभी-कभी लहराते हैं, जबकि चना, मटर, मसूर, सरसों, अलसी अपने बीज-धन को अपने थैलों में समेटे लटकाए खड़े रहते हैं। इस समय बाग-बगीचों में गेंदा, गुलाब, गुलदाऊदी, सूरजमुखी, दहेलिया आदि के फूल अपने मिश्रित मंद सुगंध से सम्पूर्ण वातावरण को गमगमाए रखने की भरसक कोशिश करते हैं। कहीं-कहीं उन पर मंडराती इंद्रधनुषी तितलियाँ उनके सौन्दर्य को अभिवृद्धि करने लगती हैं।

वहीं दूसरी ओर घर के चहरदीवारियों, छप्परों, छतों, अलगनियों पर लौकी, कुम्हड़ा, करेला, तुरई, सेम, बरबटी, खजूयत और आँगन-बागवानी में गाजर, मूली, शलगम, चुकंदर, टमाटर, परवल, पालक, मेथी, भिंडी, फूलगोभी, मिर्च, खीरा आदि दिखाई पड़ ही जाते हैं। जबकि जलाशयों में सिंघाड़ा और छोटी-बड़ी ढेर सारी मछलियाँ पानी में तैरते दिखाई पड़ते हैं। बागवानी से लेकर बाग-बगीचों में चीकू, संतरा, नाशपाती, बेर, शरीफा, पपीता, करौंदा, अनार, नारियल, खजूर, आदि फल लटके दिखाई पड़ते हैं। जबकि इलाइची, मुनक्का, खजूर, घी का प्रयोग विशेष रूप से होने लगता है। शीत ऋतु में स्वाभाविक रूप से जठराग्नि तीव्र हो जाती है, अतः पाचन शक्ति प्रबल बन जाती है। लोग कुछ विशेष ही खा और पचा लेते हैं। इस समय का लिया गया पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्षभर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। इस समय मीठा भोजन प्रिय लगने लगता है। पर जाड़े में जिनके पति बाहर होते हैं, ऐसी बिरहिणी बिलासिनियों के चित को कामेच्छा भाव व्यथित कर देता है।
‘काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ।।’

सामर्थ्यवान् के लिए तो बात ही अलग है, पर्याप्त साधन के कारण उनके लिए सभी काल, सभी ऋतु, सभी परिस्थितियाँ अनुकूल ही बनी रहती हैं, पर बेचारे निर्धन, असहाय को सताने में कोई भी मौसम जरा-सा भी कोताही नहीं बरतता है। गर्म रजाई, कम्बल, शॉल और ब्लेजर, मोजो में लदे-फँदे भले ही पर्वतीय सौन्दर्य का, बर्फबारी का आनन्द ले लें, किन्तु निर्धन के पास सिर पर छत नहीं और तन ढकने के कपड़े नहीं, उनकी क्या गति होगी? न मजदूरी, न खाने की व्यवस्था ही। जबरदस्त पाले फसलों को मार देती है। वृद्ध और बीमारों की दशा तो कुछ न ही पूछिए। ‘हल्कू’ और ‘होरी’ का शरीर है कि जाड़ा और पाला से बर्फ बना जा रहा है, पर पेट है कि भूख की आग से धधक रहा है। आखिर कटे, तो कैसे कटे ‘हल्कू’ और ‘होरी’ की ये पुस की रातें?
‘चंद और चांदनी की चरचा करेगा कौन, सेज दोपहर को भी छूट नहीं पाती हैं।’

श्रीराम पुकार शर्मा 

जहाँ हेमंत ऋतु में मानवीय शरीर के अनुकूल वातावरण के कारण लोग बैद्य या चिकित्सकों को दूर से ही नमस्कार करते हैं, वहीं शिशिर ऋतु में अत्यधिक शुष्क मौसम के कारण मानवीय त्वचा शुष्क और रूखा हो जाता है। शरीर पर कपड़ों की भरमार से त्वचा तक ताजगी हवा नहीं पहुँच पाती है। ऐसे में चर्म रोग खुजली की आम शिकायत आने लगती है। साथ ही स्कैबीज, जुओ, दाद, पायोडरमा, कीड़े के काटने, एलर्जी आदि रोग भी प्रबल हो जाते हैं। फलतः लोग अब बैद्य या चिकित्सकों के पास दौड़े जाते हैं। जाड़े में तेल मालिश और गरम पानी में स्नान त्वचा के लिए उपयुक्त हो जाता है।

माघ की सुखद सुहानी धूप अनुरंजनकारी होती है। इसी ऋतु में हम सनातनी हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्योहार ‘मकर संक्रांति’ आता है। इसी दिन से सूर्यदेव उत्तरायण हो जाते हैं। इस दिन तीर्थ यात्रीगण ‘सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार’ की रट लगाते हुए ‘गंगासागर’ या फिर श्रेष्ठ नदी-जलाशय में स्नान के लिए चल पड़ते हैं। लोहड़ी, मकर संक्रांति, पोंगल आदि त्योहारों की धूम चुरा, दही, तिलकुट, रेवड़ी, मक्का की रोटी, सरसों की साग आदि बढ़ा देते हैं। ऐसे में ही ज्ञानदायिनी वीणावादिनी माँ सरस्वती जी की आराधना के मंत्र गाँव-शहर के विद्यालयों में गूँजित होने लगते हैं। फिर लगभग जाड़ा के अंत में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को देवाधिदेव महादेव जी का ‘महाशिवरात्रि’ का महापर्व मनाया जाता है। देश-विदेश भर के सभी शिवालयों में ‘हर हर महादेव’ के साथ ही मंदिरों में घंटीनाद तथा शंखनाद से सम्पूर्ण वातावरण ही ‘शिवमय’ हो उठता है।
‘आशुतोष शशांक शेखर चन्द्र मौली चिदम्बरा, कोटि-कोटि प्रणाम शंभू कोटि नमन दिगम्बरा।’

जाड़ा और सर्दी की बात हो और भला कलयुगी ‘अमृतरस चाय’ की बात न हो, तो बात कुछ अधूरी ही रह जाएगी। उसके बिना किसी का स्वागत ही असंभव है। शहर से लेकर गाँव तक, अमीर से लेकर गरीब के घर तक, सबके लिए सचमुच जीवन रस है, चाय और शिशिर में तो इस ‘अमृतरस चाय’ के बिना शरीर में ताजगी का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
‘जाड़े की सुबह की पहली चाय, सुनहले सूरज की किरणों के गोद में,
संतुष्टि के गीत बनकर नयी उमँगे, जगा जाती है ठिठुरते मन में।’

चूंकि प्रकृति के विविध स्वरूपों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव लोकजीवन पर पड़ता ही है। फलतः इसके समस्त रूपों में लोकसंस्कृति की वृहद झलक दिखाई देती है। शीत ऋतु में भी मनुष्य को जीवन में संघर्षों से सामना करने की प्रेरणा मिलती है। शरद ऋतु में जहाँ हमारा शरीर और क्रिया-कलाप बहुत कुछ सामान्य बना रहता है, वहीं शीत ऋतु में प्रबल शीत और जाड़ा के कारण हमारा जीवन संघर्षशील बन जाता है। इसी तरह से वसंत ऋतु के आते ही मौसम सुहावन और शरीर भी सलोना हो जाता है। बात स्पष्ट है कि अगर हमारे जीवन में ग्रीष्म ऋतु की झुलसाती तपन आती है, तो वर्षा की मधुर फुहार उसे शीतल अवश्य ही करती है। सर्दी कपकपाती और ठिठुराती है, तो बसंत की मनोहरिता जीवन में सुखद अनुभूति भी प्रदान करती है। जीवन में आगत कभी दु:ख या दुर्दिन हमेशा के लिए नहीं टिक पाते हैं, बल्कि उसके बाद ही सुखद खुशियों की बारी भी आती ही है।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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