*बेटी*
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है कलम व्यग्र इतिहास लिखते हुए
बच्चियों की व्यथा, त्रास लिखते हुए
वह कली, ठीक से जो खिली भी न थी
शाख से तोड़कर धूल में रौंद दी
क्या कहूँ पीढ़ियों को, कहूँ किस तरह?
लेखनी की जमी श्वास लिखते हुए
है कलम व्यग्र इतिहास लिखते हुए
नोचते गिद्ध जब बच्चियों के बदन
सोच कर ही सिहर जाय तन और मन
लेखनी भी सिसकती रही रात भर
ले रही आज उच्छ्वास लिखते हुए
है कलम व्यग्र इतिहास लिखते हुए
विश्व से भेड़िए-गिद्ध मरते रहे
लग रहा है, मनुज रूप धरते रहे
कृत्य वीभत्स तो कह रहे हैं यही
हो रहा आज विश्वास लिखते हुए
है कलम व्यग्र इतिहास लिखते हुए