तहजीब
अब मैं नीलकंठ से नहीं पूछता,
मेरे परीक्षा का परिणाम क्या होगा,
बचपन में तसल्ली मिलती थी,
नीलकंठ के उडने पर,
उसका उडना पास होना बताता था।
अब मैं लकडी के टुकड़ों को,
कपड़े में लपेटकर नहीं उचारता,
अब घर की रेंगनी पर बैठे,
काँव-काँव करते काग को देखकर,
किसी अपने के आने की राह नहीं देखता।
अब मैं अपनी दाहिनी आँख के फडकने पर,
यह नहीं सोचता की कुछ अच्छा होगा।
अब रात के समय दरवाजे से लगकर,
रोती हुई बिल्ली को,
अपशकुन नहीं मानता,
रास्ते को काट रही बिल्ली को देखकर,
रास्ता नहीं बदलता।
मैं अब समझदार हो गया हूँ,
अंधविश्वास को जान गया हूँ।
पर मैं कैसे मना करूँ माँ को?
मेरे बाहर निकलने पर दही-चीनी न खिलाये।
मेरे माथे पर अपने कांपते हाथों से,
आयुष्य का टीका न लगाये।
मैं कैसे उसके विश्वास को अंध कहकर,
उसकी जर्जर सी काया से,
मेरे सलामती को निकली दुआओं को,
अपनी जानकारी का मुलम्मा चढाकर,
उसके विश्वास के ज्ञान को अंधविश्वास बताऊँ।
उससे कैसे कहूँ अब तेरी बातों से झेंप हमें होती है,
बूढी हो गई है न माँ,
अब नए काल की तहज़ीब खो चुकी है।