निशा के आते ही
दिवाकर के छिपते संग ही,
वो दबे पाँव आ जाती है,
लिये मादकता को गोद में;
वो कोई मन्मुग्ध गीत दोहराती है।
घूँघट ओढ़े काली घटा की,
माथे पर बिंदी शशी सी है,
आभूषण मानों तारें हैं उसके;
जिससे प्रज्वलित संसार भी है।
नभ, तट, विटप सब चमक रहे हैं,
उसकी प्रज्वलित कौमुदि से,
जुगनु से जगमग हैं अख्य भी;
है दूर जगत अंधियारी से।
हैं मुग्ध पवन के झोंके उसपर,
अब थोड़े धीमें-धीमें बहते हैं,
लिये उसकी शीतलता थोड़ी;
तन को छू कर निकलते हैं।
खग कुल भी अब उसके आते,
मंत्रमुग्ध हो स्थूल पड़े,
ले रहे निशा की मादकता का मौज़
हैं मनुष्य भी निद्रा के भेंट चढ़े।
उसके आगमन से गमन तक
बस फर्क इतना ही होता है,
मानव तो है रहता विचलित
पर जैवमंडल चैन से सोता है।