हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्ववविद्यालय एवं कोल इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

  • विषय- हिंदी और भारतीय साहित्य
  • स्थान- मेघनाद साहा सभागार, राजाबाजार साइंस कॉलेज, कोलकाता

कोलकाता। देश की प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक शैक्षणिक संस्था ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ में रविन्द्र जयंती के शुभ अवसर पर कोल इंडिया लिमिटेड के संयुक्त तत्वावधान में ‘एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी’ का सफल आयोजन किया गया। संगोष्ठी में देश के कई  अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों से प्राध्यापक और प्राध्यापिकाएँ वक्ता के रूप में उपस्थित थें। कार्यक्रम का आरम्भ अतिथियों के स्वागत व दीप प्रज्वलन के पश्चात माँ शारदा की वन्दना के द्वारा हुई। कार्यक्रम के उदघाटन सत्र में कोल इंडिया लिमिटेड के निर्देशक विजय रंजन और प्रेम शंकर त्रिपाठी, अजय चौधरी, निर्मल कुमार दुबे, राजेश कुमार साव, प्रियांशु प्रकाश, संदीप सोनी सहित कई अतिथि उपस्थित थें।

जिन्होंने कार्यक्रम के प्रति साधुवाद देते हुए रविन्द्रनाथ टैगोर की साहित्यिक योगदानों पर चर्चा करते हुएँ फ़िजी, मॉरिशस, त्रिनाड आदि देशों में हिन्दी के व्यवहारिकता पर चर्चा की। कार्यक्रम के प्रथम सत्र में उत्तर बंग विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रोफेसर मनीषा झा, कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रोफेसर राजश्री शुक्ला, बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रोफेसर अरुण होता और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रोफेसर कुमुद शर्मा अतिथि के रूप में उपस्थित थें।

कार्यक्रम के संयोजक कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. राम प्रवेश रजक ने सभागार में उपस्थित सभी अतिथियों को सम्बोधित किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका प्रोफेसर डॉ. राजश्री शुक्ला ने कार्यक्रम के विषय पर बात करते हुए कहा कि भारतीय साहित्य को हम एक भाषा का साहित्य नहीं मान सकते, भारत के समस्त भाषा का साहित्य ‘भारतीय साहित्य’ है। उन्होंने भारतीय साहित्य क्या है इसका बड़ी सुलभ उदाहरणों से उल्लेख किया इसकी महत्ता को बताया।

विदेशी साहित्यों के विभिन्न रूपों को बताते हुए भारतीय साहित्य के सृजनात्मक, कल्पनाओं को बचाए रखने के लिए हिंदी को बचाए रखने की प्रेरणा दी। उन्होंने स्वीकारा कि भारतीय साहित्य की पहचान भाषिक नहीं बल्कि भारत के सभी भाषाओं के विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है। प्रोफेसर मनीषा झा ने सभी को सम्बोधित करते हुए हिन्दी और वर्तमान विमर्शों के अखिल भारतीय स्वरूप पर चर्चा कि और ‘प्रकृति विमर्श’ की बात सामने रखी। उन्होंने कहा कि पर्यावरण भी साहित्य का हिस्सा, पर्यावरण की मुक्ति सभी साहित्यों का एक प्रमुख अंश।

मनुष्य का जीवन पर्यावरण को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता इसलिए पर्यावरण के प्रति सच्ची संवेदना जरूरी है। प्रोफेसर अरुण होता ने सभागार को सम्बोधित करते हुए कहा कि वर्तमान समय में जहाँ अलगाव की बात हो रही है वहाँ भारतीय साहित्य की बात अत्यंत जरूरी है। भारतीय साहित्य कहने का अधिकार उस साहित्य को है जिसमें भारत के जीवन मूल्य व सांस्कृति की चर्चा हो। डॉ. नगेन्द्र की बात करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय साहित्य हिमालय से भी ऊँचा और प्रशांत महासागर से भी गहरा है।

प्रोफेसर प्राध्यापिका कुमुद शर्मा ने कहा कि भारतीय भाषाएँ रुप दृष्टि से अलग हो सकती है लेकिन संरचना दृष्टि से वें एक ही हैं। इसके निर्माण में वेदों,उपनिषदों और पुराणों का महत्वपूर्ण योगदान हैं। साहित्य के मूल में किसान हैं, गांधी जी को हम स्वाधीनता के नायक मानते हैं लेकिन गांधी जी ने वास्तविक नायक किसानों को बताया हैं। उन्होंने कहा कि हमारे तमाम भारतीय रचनाकारों के बीच एक सांस्कृतिक साझेदारी है।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्राध्यापक डॉ. सुधीर प्रताप सिंह और डॉ. आनन्द कुमार सिंह उपस्थित थें। डॉ. आनन्द कुमार सिंह ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा कि विश्व साहित्य और भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक रचनाओं में कोई अंतर नहीं, अन्तर समाधान प्रक्रिया में हैं। हमारे चरित्र दुख भोंगते हुए भी खुश रहते हैं, गौतम बुद्ध ने भी दुख को ही दृष्टि बनाया हैं।

केवल भूगोल का क्षेत्र भारतीय साहित्य का क्षेत्र नहीं भारतीय आशावादी दृष्टि ही भारतीय साहित्य का क्षेत्र है। उन्होंने जॉन कीट्स और शैली की रचनाओं के द्वारा अपने बातों की पुष्टि की इसके साथ ही अपने वक्तव्य में उन्होंने दुःखवाद, मायावाद, अवतारवाद आदि मतों पर भी चर्चा की। वहीं डॉ. सुधीर प्रताप सिंह ने भाषाधारी साहित्य और भारत की सांस्कृतिक चेतना को भारतीय साहित्य का दर्पण मानते हुए कहा कि भारतीय जीवन दर्शन में ही सम्पूर्ण चर-चराचर जगत की सम्पूर्णता है।

उन्होंने अपने वक्तव्य के द्वारा यह चिंता भी व्यक्त की कि हम विमर्शों के दौर में मूल भारतीय चिन्तन से दूर होते जा रहे हैं अतः हमें अपने मूल चिन्तन की तरफ़ पुनः लौटने की आवश्यकता है। कार्यक्रम के अंतिम सत्र में त्रिपुरा विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रोफेसर डॉ. विनोद कुमार मिश्र, विद्यासागर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रोफेसर डॉ. संजय जयसवाल और स्कॉटिश चर्च कॉलेज की प्राध्यापिका डॉ. गीता दूबे उपस्थित थीं।

डॉ. विनोद कुमार मिश्र ने असमिया स्त्री विमर्श, बहु पत्नी विवाह, भारतीय भाषा का महत्व एवं पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच के संघर्षों के आधार पर अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने कहा कि जब-जब राज्य सत्ता हम पर हावी होगा हमें साहित्य ही बचाएगी। उन्होंने हिन्दी को भारतीय साहित्य के बीच एक सेतु के रूप में स्वीकार किया। डॉ. संजय जयसवाल ने अपने वक्तव्य में भारतीय साहित्य को किस नजर से देखा जाएँ, भारतीय संस्कृति का मूल चरित्र, वर्तमान में भारतीय साहित्य के समक्ष वैश्विक चुनौतियों, भारतीय साहित्य की अवधारणा आदि विषयों पर चर्चा की।

साथ ही भारतीय साहित्य में अनुवाद की आवश्यकता को भी उन्होंने परिभाषित किया। डॉ. गीता दुबे ने कहा कि निराला और टैगोर हिन्दी और बांग्ला साहित्य को पढ़ने के दो सूत्र हैं। उन्होंने विमर्शों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए आत्मकथाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को सबके समक्ष रखा। आत्मकथाओं को उन्होंने अपने समय का इतिहास कहा और माना कि इसमें कहानी स्व जीवन की ना होकर पूरे समाज की होती है, इस क्रम में उन्होंने ‘वे नायाब औरतें’, ‘एक अनपढ़ कहानी’ आदि आत्मकथाओं पर चर्चा भी की।

कार्यक्रम का सफल संचालन कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. राम प्रवेश रजक, प्रोफेसर विजय कुमार साव और प्रियांशु प्रकाश ने किया। कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन विभागाध्यक्ष डॉ. राम प्रवेश रजक द्वारा किया गया। कार्यक्रम के आयोजन में संकल्प हिन्दी साहित्य सभा, वाद विवाद समिति और ‘प्रक्रिया’ भित्ति पत्रिका के द्वितीय और चतुर्थ सत्र के विद्यार्थियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कार्यक्रम में कलकत्ता विश्वविद्यालय के साथ-साथ राज्य के कई अन्य शैक्षणिक संस्थानों से भी विद्यार्थी जुड़े। साथ ही सोशल मीडिया पर कार्यक्रम का लाइव प्रसारण भी किया गया।

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