प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ। आज एक छोटे बच्चे का गाया शिव ताण्डव स्तोत्र सुन रहा था। वह बच्चा खेलते हुए अनभुले में गाए जा रहा था। उसकी माँ की दृष्टि पड़ी होगी और उसने इसे रिकॉर्ड कर लिया। वह किसी नदी की भाँति बह रहा था। नदी को कहाँ पता होता है कि उसकी राह में शिलाखण्ड हैं। कि कोई अड़चन है। कि पेड़ है। वह तो बस बहती है। ठीक वैसे ही वह बह रहा था। भाषा और उच्चारण की दृष्टि से अनेक अशुद्धियाँ भी थीं। किन्तु भाव में जब निश्छलता होती है तो उसका भाव्य सदा ही समीप रहता है। उसके भाव शाब्दिक समझ के भी न थे और न ही उसे यह भी पता होगा कि जो मैं गा रहा इसका अर्थ क्या है। किसको अर्पित है। किन्तु उसका चित्तार्पण शब्दों और ध्वनियों के सुमेलित समन्वय से कहीं ऊपर था।
यह जीवन ऐसे ही कोई नासमझी है। इसे बच्चे ही जीते हैं। बाकी लोग तो इसमें व्यतीत भर होते हैं। वह बच्चा उस समय गा देने की आत्यन्तिक स्थिति में था। वह गा उठा। अभी उसमें इतनीं अड़चन नहीं जगी जो शुद्धियों की बात में जाता। वह शुद्धि और अशुद्धि के परे हुआ। उसने गाया। वहाँ कोई निर्णय न था। वहाँ कोई निर्णायक भी नहीं। किसी पुरस्कार की अभीप्सा नहीं और न ही उस गाये के पीछे प्रशंसा में उठे हाथ ही। वह गीत उसका आनन्द था। उस क्षण का तुल्य। उस क्षण वही उसकी अतिरिक्तता थी। बालक रूपी कृष्ण के लिए कैसे अघोरेश्वर आते हैं।
जो अपने में होता है वह ही नासमझ। जो दूसरों में होता है उसे ही हम समझदार कहते हैं। मात्र अपने में होने भर को किसी विशिष्टता की आवश्यकता नहीं। यह अपनेआप में विशिष्टता है। अपने मे होने भर से प्रार्थना होती है। समूह में होने पर भी अपनी ही बात पहुँचती है। जैसे सूरज कि प्रत्येक किरण अपनेमें सूरज ही है। हर किरण की अपनी ही पूर्णता। मनुष्य बंधता है। एक दूसरे से। सम्प्रेषण से जुड़ता है। किन्तु यहाँ उपजा हर सम्प्रेषण अस्तित्व का ही है। बस उसके पीछे के भाव अस्तित्व के भाव होवें। भाव ही माध्यम है। जैसे भविष्य भूत का ही चिन्तन है।
जो कल होगा, जिसका होनहार ही कल में हो, उसे आज कैसे सोचा जा सकता है। और आज भी भूत ही है। वर्तमान तो बस एक झपकी है। झपकी में सचेत रहना कठिन है। नींद तो वैसे भी मृत्यु ही है। नींद भूत है। यह झपकी वर्तमान। नींद में ही देखा गया स्वप्न, जो कि नींद से थोड़ा सा भिन्न है, वह एक भिन्न अर्थ में भविष्य है। बच्चे झपकी होते हैं। अपने मे चेते हुए। अपने में सधे हुए। कोई लिखावट नहीं। कोरे। निर्मल। अभी संसार के अक्षर उपटे नहीं हैं इनमें। इसीलिए इतना भाव और प्रवाह है इनमें। उस बच्चे का भाव अस्तित्व का भाव है। समझ में नहीं आता किन्तु है बहुत ही व्यापक।
कभीकभार आदमी भी बच्चा होता है। सदा नहीं होता। कभीकभी अपनी जड़ की ओर खिंचता है। कभी मुक्त होकर नाचता है। कभी गा भी लेता है। बस एक झीने पर्दे की ओट होवे। नहीं तो वैसे के इसके नाचे गाये में उत्तमता की वांछना होती है। कभीकभार प्रशंसा के पुल से नीचे उतर पाता है। ऐसे में बच्चे सम्बल देते हैं। प्रतीत होता है कि रचने वाले ने यों ही सीढियाँ नहीं जड़ी हैं। ऐसे ही नहीं उद्विकास की लम्बी यात्रा है। ऐसे ही नहीं अन्तिम सीढ़ी पर किसी बूढ़े को बच्चा ही खड़ा दीखता है। जो देखे, सुने, सहे, सहेजे गए अनुभव थे, संसार के थे। उन्हें छोड़ना होता है। मुक्ति के द्वार पर सीखा उतना निर्णायक कभी न हुआ जितना कि छोड़ा। हर आदमी निर्नायक ही जाता है। उसके सांसारिक ज्ञान की अन्तिम सिद्धि संसार की है। आवश्यक थी। किन्तु मात्र अन्तिम में छोड़ देने भर की आवश्यकता जितनीं आवश्यक।
अब भी वह बच्चा शिव के उस धुन की व्याप्ति मुझमें छोड़ रहा। यह समेकित बात है जो घटती है। बच्चे ऐसे ही निकल जाते हैं। संसार सबको तुल्यसंख्य बनाकर ही दम लेता है। ऐसे में अपनी शुद्धि में भी जो निश्छलता बचाकर रह गया, वह सीढ़ी लाँघ गया। संसार के सभी भक्त बच्चे ही रहे। सभी साधक बूढ़े हुए किन्तु बच्चे जितने। धीरेधीरे उस बच्चे की तुतलाती आवाज़ मुझे घेर रही। अन्तिम में उसके कहे गए ‘शिवः शिवम्’ का स्वर मेरे हर जाने गए को मूक कर रहा। दक्षिणामूर्ति भी उसको सुनकर ठहरे होंगे। तभी तो सनातन की इस दिव्यधुनी का आचमन बालक होकर किया जाता रहा है। और अन्त में — हम सभी में बसा शिशु खिलखिला कर गा उठे, इसी शुभेच्छा के साथ आकाश भर नमन।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com