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।।संसार का अचरज।।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । मेड़ पर कहीं से छिटक कर आए सरसो के दो शाक अब फूल गये हैं। खेत की ओर झुके हुए। उस बीघे भर खेत के दो पीले पहरेदार। दोनों लगभग एक ही कद काठी के। मझोले। और इस समय फूलों से एकदम ठस। यों तो उस खेत से कुछ ही दूरी पर पीले फूलों की दीवार सी बनी है। मानो चारोओर पीली चादर टँगी हो। किन्तु इधर ये दोनों अकेले खड़े हैं। जैसे दोनों का मूल इसी जगह को तोड़ने को आया हो। कईबार हिस्सेदार बिछुड़कर दूसरे ठौर पर चले जाते हैं। वे दोनों गिनती को तो दो हैं। किन्तु उन अनगिन चेहरों में वे कहीं नहीं दीखते। उन्हें देखना पड़ता है। और जब वे देखे जाते हैं तब तमाम अनगिनताओं के परे देखे जाते हैं। उन हज़ार पीले चेहरों में सबकी अपनी अलग पहचान तो है ही। किन्तु भेदना कठिन है। कई बार पेड़ पौधे पृथक होते हुए भी एक से लगते हैं। उन सबका चेहरा पता नहीं क्यों एक जैसा होता है। किन्तु क्या वे सभी सचमुच एक जैसे ही होते हैं? मनुष्य की चीन्हने की योग्यता कईबार ऐसे ही धराशायी हो जाती है। रहस्य को ऐसे ही नहीं रहस्य कहा जाता है।
धीरे-धीरे सूरज आँख उठाता है। रात छत पर रह गईं ओस की बूँदें उसी वृत्तानुपात में चलने लगती हैं। उन्हें जाते नहीं देखा जाता। सहसा छत सूनी हो जाती है। उस सुन्नता को धूप भर देती है। मोर छत के बाड़े पर बैठकर घोघता है। यह ध्वनि टकराकर उसकी ओर ही लौटती है। यद्यपि यह ध्वनि अपनी क्षमता तक पहुँचती है। लोग अनसुना कर जाते हैं। जो कोई सुन भी ले तो समुझ भर ले कि मोर बोल गया। मैं कईबार सुनकर स्वयं से पूछता हूँ कि क्या बोला, कितना बोला, आख़िर किसे सुना गया। तब हरबार लौटता हूँ कि मैं सुनने को हो आया रहा होऊँगा। ध्वनि की धीमती गहराई में अर्थ सदा खो जाते हैं। महसूसन धर आती है।
मैं सदा इसमें धरा जाता रहा हूँ। उसकी छोड़ी गयी ध्वनि मेरी हो जाती है। इस जगत में ध्वनियों का इतना सामर्थ्य तो है ही कि वो बोलने वाले तक भी अवश्य ही पहुँचती है। अपनी विशिष्ट समझ के सङ्ग। और सुनने वाले में समझ की अनन्त सम्भावनाएँ छोड़ जाती है। सहसा मोर उस बेड़े को छोड़ देता है। पंख को तोलता हुआ उसे एक निश्चित अवधि देता है। मेरे ठीक ऊपर से कोई नीली झाड़ सी गुज़र जाती है। वह क्षणभर में आम की डाल पर थिर जाता है। यह छत आज के लिए इतना ही था उसका। ऐसे ही छत और बेड़े जीवन में आते हैं। उतने ही भर के, जितने भर के हम उड़ न जाए।
एक छोटी बच्ची हाथ में खिलौने को पकड़े घूमती है। अभी अधिक दिन न बीते जब उसने चलना जाना है। अब जब वो चलने लगी है, तो चलने को जीती है। अचानक से उसके भीतर यह परिवर्तन आया होगा कि मैं तो चलने लगी। अब वह चलने को भारती नहीं। अपितु अब चलने में जो उत्सव है, वह उसे मनाती है। उसके लिए वह टूटा सा खिलौना बड़ा फेर है। एक लड़का उसे छेड़कर खिलौना छीन लेता है। वह अक्षण ही खिलौना बन जाती है। रुदन और छइला जाना ही उसके अस्त्र हैं। उन्हें छोड़ने में वो रत्तीभर भी कसर नहीं छोड़ती। वह जीत जाती है। आँसू अब भी उसकी आँखों के नीचे पहचाने जा सकते हैं। किन्तु सच तो यहीं कि वो आये ही न थे। उनकी आवश्यकता भर थी। वह एकदम से उन आँसुओं को भूल चुकी है। लोटने में लगी धूल को उसकी माँ पोछती है। वह उस पोछने से विरक्त है। माँ झट अपनी दुनिया में खो जाती है। और उस बच्ची की दुनिया अपनी माँ से कही बड़ी है। माँ सीमित हो गयी है। और वह बच्ची अपनी निस्सीमता में से ही चलकर आती है।
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मैं यह सब देखते हुए, अपनी ओर आती उस बच्ची की ओर अँकवार बढ़ाता हूँ। वह उसी कोण से पीछे की ओर घूम जाती है। चार कदम बढ़कर मेरी ओर देखती है। पुनः हल्की सी मुस्कान सौंपती है। अबकी अँकवार अदृश्य होकर खुलता है। वह उसमें समाती है। सरसो के दो शाक, चला गया मोर, और यह छोटी सी बिटिया, इन सभी में जगत का नास्तिवाद पछाड़ खाकर गिर जाता है। कई बार नामशेष भी नहीं होता। किन्तु अस्तित्व के ऐसे नामवाचक सदा रहेंगे। क्योंकि परमात्मा ऐसे ही विस्तरता है। जो सूक्ष्म विषयता है, वह आलिंगन है। वह समाप्त न होकर प्रकृतिपर्यन्त है।
और अन्त में — हम सभी में यह संसार का अचरज उतर जाय, इसी शुभेच्छा के साथ प्रणम्य भाव से आकाश भर नमन।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com