“सूरत बनाम सीरत”
आइने ने कहा इक दिन, “क्यूं सिर झुकाए बैठी हो?
ज़रा मेरी ओर भी ध्यान कर लिया जाए-
मैं तुम्हें तुम्हारी सच्चाई दिखाता हूं मोहतरमा,
क्यूं ना आज फिर सूरत पर गुमान कर लिया जाए?”
मैंने पलकें उठाईं और मुस्कुरा कर कहा-
“तुम मैं नहीं, मेरा शरीर, मेरी काया हो
इस क्षणभंगुर जीवन में तुम ही तो
सबसे मनमोहक माया हो।
अब नहीं तकती मैं तुम्हारी ओर यह सोच कर,
कि ज़रा अपनी सीरत का भी ज्ञान कर लिया जाए।
मनमोहिनी काया पर थका-सा मन,
क्यूं ना इसमें भी जान भर दिया जाए?
तुम्हारी ओर देखूं और गुमान करूं
तो इस काया की माया फिर से न ठग जाए।
रूठी थी मुझसे मेरी ही सीरत, बड़ी मुश्किल से मानी
इस बार जो रूठ गई तो मनाने में एक अरसा न लग जाए…
– स्वाति मिश्रा
बेहद खूबसूरत कविता