श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : पानी रे! तेरा रंग कैसा?

पानी रे! तेरा रंग कैसा?

श्रीराम पुकार शर्मा

पंडित कैलाशनंदन जी कुछ दिन पूर्व ही अपनी सेवा से निवृत हुए हैं। ‘भविष्य निधि’ और ‘आनुतोषिक’ (gratuity) के सब मिलाकर लगभग तीन-साढ़े तीन लाख रूपये प्राप्त हुए थे। आखिर पद भी क्या था, एक प्राइवेट कम्पनी में लिपिक-क्लर्क का। उस प्राप्त रकम के अधिकांश अंश उनकी छोटी-सी पैत्रिक जमीन पर ‘दो प्राणियों’ के रहने लायक दो कमरे वाले एक मकान बनवाने में ही खर्च हो गए।

नहीं भाई, आपने गलत कल्पना कर ली, ऐसा नहीं है कि उनकी पत्नी ‘रूपा’ बाँझ या वे निःसंतान हैं। दोनों ही अपने खपरैल मकान के आँगन-संसार में समयानुसार दो संतानों के माता-पिता बने हैं। उनका आँगन भी बच्चों की किलकारियों से गूँजा है। पहला लड़का मनोहर है, फिर लड़की सरोज। अपने मासिक वेतन तथा शाम के आंशिक (पार्ट टाइम) कार्य से प्राप्त रकम को घर-संसार तथा बच्चों को योग्य बनाने के विराट हवन-कुण्ड में आहुति स्वरूप निरंतर अर्पण करते रहे।

अग्नि-देव प्रसन्न भी हुए थे, फलतः योग्य वर पाते ही अपने बुढ़ापे के लिए संचित एकमात्र अर्थगत सहायक ‘भविष्य निधि संचय’ से काफी मात्रा में धनराशि ऋण लेकर कुछ सोच-समझ कर ही लड़के से पहले ही अपनी लड़की सरोज के हाथ पीले कर दिए। अब वह अपने घर-परिवार की कुशल गृह-स्वामिनी है।

उनका बेटा मनोहर भी इसी शहर के एक बड़े आफिस में नौकरी कर रहा है। उसका वेतन भी अच्छा ही है। बेटे की नौकरी लगते ही पत्नी रूपा सहित पंडित कैलाशनंदन जी की बाँछे खिल गई। बाप-बेटे के संयुक्त आर्थिक प्रयास से उनके घर-जीवन का अनचाही विशेष अंग बना हुआ ‘अभाव’ अब अवश्य ही दूर भागेगा।
पर विचार से भोले-भाले पंडित कैलाशनंदन जी को समय ने अपने स्वभावानुसार गलत स्वप्न दिखला दिया था।

गरीबी और अभाव दोनों जुड़वे हैं, दोनों का जन्म भी एक साथ ही हुआ करता है। एक के साथ दूसरा बिन बुलाये मेहमान की भाँति जबरन घर में और जिन्दगी में प्रवेश कर जाता है। दोनों को कोई अलग कर ही नहीं सका है खैर, पंडित कैलाशनंदन जी उपयुक्त अवसर देख कर खाते-पीते घर की एक पढ़ी-लिखी कन्या अभिलाषा को बहुत ही धूम-धाम से अपनी पुत्रबधू बना कर अपने घर में ले आये।

रूपवती पत्नी पाकर मनोहर भी धन्य हो गया। रूपा बहुत प्रसन्न थी कि अब उसे घर के दायित्वों से कुछ अवकाश मिलेंगे, पर शुरू के कुछ दिन तो उनकी बेटी सरोज घर के काम-काज को सम्भाली रही। बेटी के जाने के बाद सास ने बहुत ही प्यार से बहु को घर-संसार की बातें समझाई, चुकी नौ बजे तक श्वसुर को अपने काम पर निकल जाना पड़ता है अतः बहु इसके पहले उनके लिए कुछ भोजन आदि बना दिया करे। फिर बेटे मनोहर के लिए भी, पर रसोईघर में रूपा के प्रवेश किये बिना किसी को सुबह का चाय तक भी नसीब न हो पा रहा था। यही स्थिति संध्या और रात्रि बेला की भी थी।

एक-दो बार उसने अपने बेटे से भी बहु को प्यार से समझाने की सलाह दी पर यहाँ तो अपना ही सिक्का खोटा निकला, तो दूसरे को क्या दोष देवें। पंडित कैलाशनंदन जी घरेलू कामों में टांग अड़ाना नहीं चाहते थे, पर दिन-प्रतिदिन पानी सिर से ऊपर होकर ही बहने लगा था। बीमारी की अवस्था में भी बेचारी रूपा सुबह उठ कर रसोईघर के सभी जूठी वर्तनों को साफ़ करती, फिर सबके लिए चाय बनाती और सबके कमरे तक पहुँचाती।

तब तक बहु अक्सर सोये ही रहती और मनोहर कुछ कागजात लेकर कुछ न कुछ करता ही रहता था। एक-दो बार पंडित कैलाशनंदन जी अपने पुत्र मनोहर को घर-संसार और दुनियादारी की बातों को समझाने के प्रयास भी किये। पर उन दोनों के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया। जो जाग रहा हो, उसे भला कैसे जगाया जाय?

इसी बीच मनोहर कई बार इस पुराने, बेढंगे व बदबूदार मकान को बेच कर किसी ‘रेजिडेंटल अपार्टमेंट’ में फ्लैट लेने के लिए जोर दे चूका था। पर पंडित कैलाशनंदन जी उसके विचार से कभी सहमत नहीं हुए। पुरखों के घर-द्वार को बढ़ाना और संवारना चाहिए, न कि बेचना? सब सुख साधन तो मौजूद है। कुछ कमी है तो बतावे, उसे भी पूरा कर दिया जायेगा, पर किसी भी कीमत पर अपने जीते जी अपने इस मकान को न बेचेंगे ही और न इसे छोड़कर कहीं और ही जायेंगे। चाहे तो वह अपनी क्षमता के अनुसार कोई फ्लैट या घर-जमीन लेवे और जाए। पंडित कैलाशनंदन जी भी अपनी जिद पर कुछ अड़ ही गए।

इतनी जल्दी भी, भला कोई रंग बदलता है? और फिर एक दिन सुबह ही द्वार पर एक छोटा ट्रक आकर खड़ा हो गया। बेटे और बहु से सम्बन्धित जरुरी सामानों की लदाई होने लगी। माता-पिता दोनों उन्हें रोकने की बहुत कोशिश किये, पर सब व्यर्थ हुआ, पता नहीं कब से इसकी तैयारियाँ चल रही थी। पुत्र का कथन, – ‘इस घर की घुटन भरी वातावरण में हमारा जीवन ही नरक बन गया है’ – माता-पिता के कलेजे को तार-तार कर दिया। पंडित कैलाशनंदन जी तो बेजुबान ही हो गए पर रूपा कुछ तेवर बदल कर कुछ कहना भी चाही, लेकिन उन्होंने उसे भी जबरन रोक दिया।

बहु की तो बात ही छोड़िये, वह तो पराये घर से आई है। वह क्या जाने, किन-किन विकट परिस्थितियों का सामना कर मनोहर को आज इस मुकाम पर पहुँचाया गया है। पर उस बेटे को ही अब माँ-बाप के खपरैल मकान और आँगन घुटन भरी नरक लगने लगा, जिसमें वह जन्म लिया, जिस गोद को शैशव में अपने कुल्लों और मुत्रों से महकाया। अब वह सब उसे बदबूदार लगने लगा। उसमें उसका दम घुटने लगा है।

उसे नरक समान प्रतीत होने लगा है। सही बात तो यह है कि रूप और लक्ष्मी दोनों मिलकर उसके उच्चाकांक्षा पंक्षी को न केवल बड़ा की हैं, बल्कि उसे ताकतवर भी बना दी है। फलतः अब पारिवारिक पिंजरा उसे बहुत संकुचित लग रहा है। अब तो उसे उन्मुक्त गगन चाहिए, जिसमें वह अपनी इच्छानुसार उड़ान भर सके। ऐसे में उसे घुटन भरी जिंदगी क्योंकर स्वीकार हो? होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि अब उसे अपनी ही नहीं, बल्कि पत्नी अभिलाषा के सुख-स्वप्नों को यथार्थ स्वरूप प्रदान करना भी तो उसका पति-धर्म ही है।

मनोहर उसका पति है अतः मनोहर पर और उसके हर एक पैसों पर केवल और केवल अभिलाषा का ही एकछत्र अधिकार है। उस पर घर-परिवार के किसी भी अन्य सदस्य का कोई भी दावा उसके लिए असहनीय ही है। अब तो मनोहर अपनी स्वप्नशील पत्नी के साथ उसी शहर में ही कुछ दूरी पर एक ‘रेजिडेंटल अपार्टमेंट’ के किसी एक फ्लैट का वासी बन गया है। दोनों एक पुत्र के माता-पिता भी बन गये हैं। पर जीवन के ऐसे सुखद उत्सव में भी उसने अपने माता-पिता को दूर रखना ही अपनी गरिमा के अनुकूल माना है।

वृद्ध माता-पिता की आत्मा अपने कुल-दीपक को देखने के लिए तरसती रह गई। कुछ दिन पूर्व पंडित कैलाशनंदन जी के ‘सेवा-निवृति’ जैसे जीवन के प्रमुख मोड़ पर पहुँचने जैसे विशेष अवसर पर भी उनके पुत्र मनोहर और पुत्र-बधू अभिलाषा उदासीन ही रहें। जबकि उनकी हार्दिक इच्छा थी कि जीवन के ऐसे विशेष अवसर पर परिवार के सभी सदस्य प्रसन्नतापूर्वक उनका स्वागत करें। उनकी दुहता सरोज तो चार-पाँच दिन पूर्व ही आ गई थी।

दुहिताओं को अपने जनक-जननी तथा मायके से विशेष लगाव स्वाभाविक रहता ही है, सो उसे भी लगाव रहा है। पर वह भी कितना और क्या कर सकती है? उसका भी तो अपना घर-संसार है। इसके अतिरिक्त कोई भला अपनी दुहिता से विशेष आस भी कैसे लगाये रख सकता है? दुहिता के सुखी सांसारिक जीवन के लिए उसके जनक-जननी को अपना कलेजा मजबूत करना ही पड़ता है। पर पुत्र और पुत्र-बधू को न आना था, सो न आये।

फिर भी पंडित कैलाशनंदन जी और रूपा के वृद्ध असहाय मन अपने पुत्र और पुत्र बधू के ह्रदय-परिवर्तन के प्रति आशावान ही थे। होता भी न कैसे? आखिर माँ-बाप जो ठहरे, हृदय के किसी कोने में आज भी उनके लिए प्रेम-भावना तड़प ही रही थी जैसा भी हो, वही तो उनके बुढ़ापे का ‘अंधे की लाठी’ है कैसे उम्मीदें छोड़ देवें? इसी बुढ़ापे के निर्बल शरीर के लिए ही तो आदमी को अपनी संतानों के प्रति आसक्ति रहती है।

इसी दिन की सुख-कल्पना कर वह अपने जीवन की सारी खुशियाँ ही नहीं, वरन अपने तन के रक्त के एक-एक बूँद को निचोड़ कर अपने बच्चों के जीवन को भव्य स्वरूप प्रदान करने की कोशिश में निरंतर प्रवाहित किये रहता है। फिर अपने पोते को देखने और उसे अपने गले से लगाने के लिए दोनों वृद्ध के मन को व्यग्र हो उठना स्वाभाविक ही है। हो भी क्यों न? मूलधन से ज्यादा ब्याज ही प्रिय हुआ करता है। ब्याज के साथ मिलकर ही कोई मूलधन, मिश्रधन के स्वरूप को ग्रहण किया करता है।

पंडित कैलाशनंदन जी अपनी सेवा की आखरी कमाई से प्राप्त वेतन से अपने परिजन के सभी सदस्यों को कुछ न कुछ उपहार अवश्य ही प्रदान किये थे। उसी के अनुरूप ही अपनी क्षमता से कुछ अधिक के उपहार लेकर रूपा सहित अपने पुत्र, पुत्र-बधू और अपने पोते से मिलने उनके निवास फ्लैट पर पहुँचे। फ्लैट तो आलिशान है, जिसे वह अपनी जिंदगी भर की सारी कमाई लगा कर भी नहीं खरीद सकते थे। उसे देखकर उन्हें अपने मनोहर पर आज गर्व ही महसूस हुआ। वास्तव में मनोहर और अभिलाषा उनके नरक से निकल कर अपने स्वर्ग में आ बसे हैं। पता चला कि उनका पुत्र मनोहर शाम को आफिस से लौटेगा।

वे फ्लैट के ड्राइंग रूम में बैठ रहें। बहु अभिलाषा एक जग पानी और दो गिलास लाकर उनके पास के चाय-टेबल पर रखकर अपने कमरे में चली गई, फिर वह अपने कमरे से बाहर न निकली। सुनने में आता है कि स्वर्ग में रहने वाले अक्सर देवी-देवता या फिर दिव्यात्मायें हुआ करते हैं। उनका दिल भी तो बहुत ही बड़ा हुआ करता है। पर यहाँ के इस स्वर्ग में भी उन्हें छोटे दिल वालों का ही आभास हुआ।

कुछ देर इन्तजार करने पर रूपा कमरे के पास जाकर बहु को आवाज दी। बहु अभिलाषा उनके पोते को लेकर ही निकली। रूपा का हाथ स्वतः उल्लास से आगे बढ़ गए। कुछ देर अभिलाषा असमंजस में रही, फिर पता नहीं क्या समझ कर अपने नवजात को रूपा की ओर बढ़ा दी। रूपा को तो मानो अमूल्य वस्तु ही प्राप्त हो गई। कभी उसे अपने गले से लगाती, कभी उसे पुचकारती हुई अपने पति कैलाशनंदन के पास पहुँची।

अपने कुल के दीपक पोते को देखते ही पंडित कैलाशनंदन जी के चहरे पर भी प्रसन्नता की लकीरें साफ नजर आने लगी। वे भी उसे पुचकारने और प्यार करने लगे। फिर जेब से एक सौ रूपये का नोट निकाल कर उसकी मुट्ठी में दबा दिए। नवजात उसे मुँह में लेने का प्रयास करता हुआ नीचे गिरा दिया I अब उसे गोद लेने की बारी पंडित कैलाशनंदन जी की है। उसे अपनी गोद में लेकर सोफे पर बैठ गए और उसे प्यार से दुलारने लगे। तीस वर्ष पूर्व का सुखद दृश्य मन-मस्तिष्क में उभर आया।

बिल्कुल ऐसे ही नवजात मनोहर को अपनी गोद में लिए दुनिया का सबसे अमीर बने झुमने लगे थे वह। रूपा झट से अपने बटुए से एक सोने की सिकड़ी (जंजीर) निकाली और उसके गले में पहना दी। बच्चा शायद अकूता-सा गया और वह रोने लगा। अभिलाषा कमरे से आई और उसे लेकर कमरे के अंदर चली गई I बूढ़ा-बूढ़ी दोनों असहाय अवस्था में हारे हुए खिलाडियों की तरह लाचार एक-दूसरे को देखते रह गए।

शाम को मनोहर वापस आया। बुझे मन से उनका हाल-चाल पूछा, फिर वह भी अंदर कमरे में चला गया। कुछ देर तक के सन्नाटे वाले समय को बिताना उन दोनों के लिए मुश्किल हो रहा था। रूपा मनोहर और बहु को आवाज देकर बुलाई और पिता की सेवा से निवृति होने की बात बता कर अपने साथ लाई उपहार स्वरूप कुछ कपड़े और मिठाइयों को मनोहर के हाथ में थमा दी।

मनोहर उन वस्तुओं को ले तो लिया, पर तुरंत ही लौटा दिया। शायद उन साधारण वस्तुओं से उसके स्वर्ग की शान में कुछ दाग लग जाने की सम्भावना थी या फिर अपनी पत्नी अभिलाषा के तेवर को वह सहन नहीं करना चाहता था। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा, – ‘ये वस्तुएँ अपने साथ वापस ले जाइए, हमें इनकी आवश्यकता नहीं है। हमें अपने आधार पर जीने दीजिए।’

पंडित कैलाशनंदन जी को इस फ्लैट में अपने निरादर की सम्भावना तो थी ही, पर अपने आत्मज से ही ऐसे हृदय विदारक कठोर शब्दों के आघातों का भी सामना करना पड़ेगा, इसके लिए वे तैयार न थे। कुछ कहना चाहे, पर शायद अवरुद्ध कंठ साथ न दिया। रूपा अभी कुछ कहती ही कि बहु ने उन भग्न हृदयों पर और भी कठोर बज्र से भीषण प्रहार कर दी, – ‘आपलोग यहाँ मत आया कीजिए, ‘सोसाइटी’ में हमें बेइज्जती महसूस होती है। अगर कभी कुछ पैसों की आवश्यकता हो, तो किसी से खबर भेज दीजियेगा, पैसे भेज दिए जायेंगे, पर यहाँ मत आइयेगा।’

पंडित कैलाशनाथ जी को अब वहाँ एक पल के लिए भी रूकना हृदयाघात की सम्भावना प्रतीत होने लगी। ममतामयी रूपा की दोनों आँखें भर आई। वह कुछ कहने के लिए व्यग्र थी, पर पंडित कैलाशनंदन जबरन उसके हाथ को पकड़े उठे और कहे, – ‘पत्थर पर आँसू की बूँदें मत गिराओगी, इससे पत्थर न तो पिघलेगा ही, और न कोई धारा बहने की ही सम्भावना है। मिल ली न अपने कलेजे के टुकड़े से। कलेजा अब शांत हो गया होगा? अब चलोगी भी, कि और नंगी होकर ही यहाँ से जायेगी।’

और भारी कदमों से दोनों प्राणी उस स्वर्ग के चमचमाते फर्श पर अपने अरमानों के बिलखते अश्रूकणों को गिराते तथा उनके स्वर्गीय सुनहले जीवन में कभी भूल से भी वापस कदम न रखने के लिए सदा के लिए लौट चलें। पीठ पीछे ही सोने की उस कोमल सिकड़ी (जंजीर) की भी दर्द भरी आवाज सुनाई दी, जिसे फर्श पर जोर से फेंक दी गई थी। वही उन सब का परस्पर आखरी साक्षात्कार था।

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