श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : “जो जस करहिं, सो तस फल चाखा”

श्रीराम पुकार शर्मा

मरणासन्न व्यक्ति कभी हँसता और कभी रोता है, वह उसके अच्छे कर्मों और बुरे कर्मों के स्मरण और उसके प्रतिक्रिया स्वरुप व्यक्त भाव हुआ करते हैंI जीवन में अपने कर्मों के अनुकूल इसी फल की प्राप्ति, के सिद्धांत पर आधारित यह कहानी हैI

“जो जस करहिं, सो तस फल चाखा”

अपने जीवन के तिरासी वर्ष पार कर चुके श्री श्याम मनोहर बाबू विगत चार दिनों से शय्या-सेवी बने हुए हैं। चिकित्सकों के परामर्श पर उनके घर पर ही चिकित्सा मूलक सारी व्यवस्था की गई हैI शरीर की जर्जरता और चिकित्सकों की सलाह से घर-परिवार के लगभग सभी लोगों को आभास हो गया है कि वह अब मात्र कुछ ही दिनों के मेहमान हैंI अतः दूर दराज से भी उनके परिजन उनके महाप्रस्थान के साक्षी बनने के लिए आ पहुँचे हैं। इस समय भी उनका कमरा उनके पुत्रों, पुत्र-बधुओं, बेटी-दामाद, नाती-नतिनी, पोते-पोती तथा अन्य परिजन से भरा हुआ हैI बेटे-बेटी और बहुओं के चहरे पर कुछ उदासी के बादल अवश्य ही छाये हुए हैं, पर उनके बाद की पीढ़ियों पर गम्भीरता के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहें हैंI
“आह!….. सोखनI” – मरणासन्न श्याम मनोहर बाबू के मुँह से इन टूटते शब्दों के साथ ही अचानक व्यथापूर्ण कराह उत्पन्न हुआI ऐसा लगा कि प्राण-पखेरू इसी ‘आह’ और ‘सोखन’ शब्दों के साथ ही उस जर्जर पिंजड़ा को सूना छोड़ कर उड़ जायेगाI पर ऐसा नहीं हुआI अभी तो कई घटनाओं का लेखा-जोखा बाकी थाI उनका दाहिना हाथ कुछ ऊपर उठा और कुछ हिला, फिर धीरे से बिस्तर पर आकर स्थिर हो गयाI दुर्बल दृष्टि बहुत ही आहिस्ते से कुछ इधर-उधर हुई, फिर सामने एक ऊँचे स्टूल पर रखे पत्थर की मूर्ति से कुछ ऊपर सूने दीवार पर जा कर स्थिर हो गईंI अश्रू के कुछ दुर्बल बूँदें उनकी दोनों आँखों के दोनों छोरों से ढुलक कर उनके सिकुड़े तथा मुरझाये हुए कनपटियों से होते हुए सिर और गर्दन के नीचे के रखे सफेद तकिये में समा कर गायब हो गएI
“बाबू जी क्यों रो रहे हैं? आपको किस बात की चिंता सता रही हैI आपके आँसू के एक-एक बूँद हमारे कलेजे पर पत्थर के समान पड़ रहे हैंI” – लगभग रोती हुई उनकी अधेड़ बेटी माधवी बोली, जो दो दिन पूर्व ही आयी है और तब से अपने पिता के कमरे को ही अपना घर-द्वार बना बैठी हैI उसका ज्यादा से ज्यादा समय अपने मृत्यून्मुख पिता की सेवा-सुश्रुषा में ही लग रहा हैI वह अकेली और सबसे छोटी बेटी हैI उसके ब्याह के कुछ महीने बाद ही उसकी माता सुजाता इस इहलोक को त्याग चुकी थीI फलतः वह अपने पिता से सर्वाधिक दुलार की हकदार बनी रहीI शायद पिता से प्राप्त अतिशय दुलार आज उसे पिता की सर्वाधिक सेवा में हेतु प्रेरित कर रहा हैI घर के अन्य मौजूद सदस्य की भी भावनाएँ कारुणिक व आर्द्र ही बनी हुई हैंI

“आज पिताजी अचानक ‘सोखन’ को क्यों याद कर रहे हैं? सोखन चाचा को मरे तो वर्षों बीत गए हैंI हमें तो अब उनका चेहरा भी ठीक से याद भी नहीं रहा। पर इन्हें उनकी याद क्यों आ रही है?” – उनका बड़ा पुत्र अमृतराज ने कुछ व्यग्रता के साथ कहाI घर के अन्य सदस्य घरेलू नौकर सोखन चाचा का नाम तो सुने हैं, पर उसे देखे तक नहीं हैं।
पर मरणासन्न श्याम मनोहर बाबू की उस स्थिर दृष्टि के पीछे अन्तः फलक पर चलायमान उन यादों के चलचित्र को कोई अन्य नहीं देख सकता हैI वह तो मरणासन्न श्याम मनोहर बाबू की कोई भौतिक मल्कियत थोड़े ही है, जिस पर उनके आत्मीयजनों का अधिकार सुरक्षित हो और उसे सब कोई देख सकें। वह तो सिर्फ उनकी और केवल उनकी अपनी आत्मीय मल्कियत है, जिस पर किसी अन्य का कोई अधिकार नहींI वही तो उनके जीवन भर की संचित वास्तविक पूँजी है और वही उनकी अग्रीम गति को निर्धारित करेंगीI फिर वह अपने पूर्व स्वरूप के आधार पर चाहे सुख देवे या फिर दुःख, उससे कोई बच थोड़े ही सकता है और उस चलचित्र फलक पर अचानक आ खड़ा हुआ था, घायल और मरणासन्न अवस्था में ‘सोखन’I

लगभग 40 -45 वर्ष पूर्व की धुंधली-सी घटना, जो आज श्याम मनोहर बाबू की दृष्टि में पूर्णतः स्पष्ट और हूँ-बहू तथा तरो-ताजा रूप में बहुत ही द्रुतगति से एक बार पुनः सचल हो पड़ीI तब वह 35-40 वर्ष के आस-पास के रहे होंगेI बलिष्ट शरीरI बलिष्ट विचार। बलिष्ट इच्छाएँ।
श्याम मनोहर बाबू रात्रि में अपनी दुकान से लौटे और अपने साथ लाये कोई पचपन हजार रुपयों से युक्त अपने बक्से को अपने हॉल के टेबल पर रख दिए थेI अन्य घरेलू काम-काज की व्यस्तता में वह उसे कहीं सुरक्षित स्थान पर रखना भूल गए थेI अगले दिन ही अपनी बहन कौशल्या को उसके पति के साथ उसे उसके ससुराल छोड़ने चले गए और उधर से ही वापसी में वे अपनी दुकान पर पहुँचेI आवश्यकतावश जब उन्हें उन रुपयों का स्मरण हो आयाI वह तुरंत घर आयें और रुपयों से युक्त उस बक्से की खोज करने लगेI पर वह बक्सा उन्हें न मिला। घर के सभी सदस्यों ने अपनी अनभिज्ञता व्यक्त कीI दो-चार रुपयों की बातें तो न थीं, जो चुपी साध लेतेंI पचपन हजार रुपयों की बात थी, वह भी चार-पाँच दशक पूर्वI
श्याम मनोहर बाबू के शक की सुई अब बार-बार घरेलू नौकर सोखन पर जा अटकता थाI पूछने पर सोहन ने भी बहुत ही सरलता सहित इंकार कर दिया। गरीब और कमजोर का पर्याय सोखन से कड़ी पूछताछ शुरू हुई। श्याम मनोहर बाबू के माताजी और पिताजी ने साफ़ शब्दों में कहा, – ’सोखन यह काम हरगिज नहीं कर सकता हैI’ पर उनकी बातों को सुनने के लिए तब के श्याम मनोहर बाबू किसी तरह से राजी न थेI वह तो क्रोधागिनी में तप्त हो रहे थे, जो उनकी बुद्धि-विवेक को जलाकर उस समय प्रबल शोला बनी हुई थीI अतः सोखन जितना इंकार करता गया, उतना ही वह लाल तप्त अंगार होते रहें। परिणामतः उन्होंने सोखन को बहुत ही बुरी तरह से पिट दिया। लाचार सोखन पिटता ही गया। आज्ञाकारिता और उस परिवार के प्रति कृतज्ञता ने विरोध के उसके सारे मनोभावों को दृढ़ता से बाँधे रखे थे। कई चोटें बहुत मर्म-स्थल पर लगी थीं। कई दिनों तक उसकी पत्नी सुखिया हल्दी-चूना लगाती रही।
घटना के अगले ही दिन श्याम मनोहर बाबू को पता चला कि हाल के टेबल पर रखे बक्से में ढेर सारे रुपयों को देख कर उनकी बहन कौशल्या ने उसे अपनी माँ की आलमारी के ऊँची ताक पर रख दी थीI अगली सुबह ससुराल वापस जाने की हड़बड़ी में वह किसी को बताना ही भूल गई थीI यह जानकर श्याम मनोहर बाबू को बहुत ग्लानी हुईI अपनी जल्दबाजी और नासमझी पर उन्हें बहुत क्षोभ भी हुआ। पर तीर से निकले बाण के समान ही घटना तो घट चुकी थीI अब साँप की लकीर को पीटने के अतिरिक्त और किया भी क्या जा सकता है? उन्होंने अपने आप को सोखन के परिजन के समक्ष अपराधी घोषित कियाI फिर अपराधबोधता के कारण उन्होंने सोखन की डाक्टरी इलाज में कोई कसर न छोड़ रखी, पर वह न बच सकाI थाना-पुलिस की भी बात चली, पर सोखन की विधवा सुखिया अपनी बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए सब कुछ सम्भाल लीI
श्याम मनोहर बाबू ने भी सुखिया की बेटी का ब्याह का जिम्मा और उसके पुत्र को पढ़ाने-लिखाने का सारा जिम्मा अपने कंधों पर ले लिया तथा उन्हें रहने के लिए अपने बंगले के अहाते में ही व्यवस्था कर दीI अब तो सुखिया उस घर की सेवा करते-करते बूढी हो चली है और वह उस घर की सदस्या भी बन गई हैI उसे तो उस घर से सेवानिवृत भी नहीं किया जा सकता हैI
“मैं तुम्हारा अपराधी हूँI मैं तुम्हारा अपराधी हूँI सोखन, मुझे दण्ड दोI मुझे दण्ड दोI” – अचानक टूटी-फूटी लफ्जों में बड़बड़ाते हुए श्याम मनोहर बाबू बिस्तर से उठने का प्रयास करने लगे, पर उठ न पायेंI आँखों से अश्रूजल की पतली धारा दो विपरीत दिशाओं में बह चली।
“काश .. काश …. उस दिन तुम पर संदेह न किया होता। सोखन… सोखनI” – बहुत ही धीमे स्वर उनके होंठ बुदबुदाए, जिसे कोई समझ न पाया।

“क्या हुआ बाबू जी? किसका अपराधी? कैसा अपराधी? बोलिए बाबू जीI” – बेटी माधवी पिता के आत्म दुःख से व्यथित हो उठीI वह झट उठी और बड़े ही प्रेम भाव से अपने रुमाल से पिता की आँखों से ढुलकते आँसू को पोंछ दीI उनके ऊपर के चादर को ठीक से ओढ़ा दीI फिर पास के छोटे से स्टूल पर बैठ कर पिता के चहरे को अपनी नम आँखों से निहारने लगीI कमरे में तुरंत ही उसके बड़े भाई अमृतराज सहित अन्य परिजन भी आएँI
“भैया! देखिये न, बाबू जी सोखन चाचा को पुकार रहे हैं, जो कई दशक पूर्व ही मर चुके हैंI बाबूजी बार-बार कह रहे हैं कि मैं तुम्हारा अपराधी हूँI मैं तुम्हारा अपराधी हूँI कुछ समझ में नहीं आ रहा हैI” – माधवी विकलता से कहीI
“ताजुब हैI अपने किसी परिजन को स्मरण न कर वर्षों पहले मरे सोखन चाचा को बाबू जी याद कर रहे हैंI” – बड़ा भाई अमृतराज ने आश्चर्य से
कहाI “बाबूजी! कैसी तवियत है? मैं आपका अमृत हूँI किसे याद कर रहे हैं? आप अपने घर में हैं देखिये, आपके सामने आपका पूरा परिवार हैI” – अमृत अपने अवरुद्ध कंठ से कहाI बार-बार उसका गला भर आता थाI उसकी भी आँखें नम ही थींI
पर श्याम मनोहर बाबू पर अमृत की बातों का कोई प्रभाव न दिखाI दीखता भी कैसे? इस समय उनकी सारी वाह्य ज्ञानेन्द्रियों ने अपनी-अपनी सारी शक्तियों से अन्तः इन्द्रियों को ही सबल बना दी थींI इस समय उनकी अन्तः चेतना ही प्रबल थीI
उनकी आँखें सामने की वही सूने दीवार पर पुनः स्थिर हुईI धीरे-धीरे उनके चहरे पर कुछ प्रसन्नता की लकीरे उभर आयींI आँखों में भी कुछ चमक आईI माधवी चहक उठी, – “भैया! देखिए बाबूजी हँस रहे हैंI”
“बाबूजी क्या बात है? कभी आप रोते हैं और कभी आप हँसते हैं?” – अमृतराज कुछ परेशान हो कर कहाI पिता की इस बदलती दशा ने उसे हतप्रद कर दिया थाI वह कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उसके पिता में यह बदलाव क्योंकर हो रहा है? पर श्याम मनोहर बाबू के मस्तिष्क में तो इस समय वर्षों पहले की, सम्भवतः पचपन-साठ वर्ष पहले की एक घटना से सम्बन्धित यादों की रील का बड़ी तेजी पर बहुत ही स्पष्ट प्रसारण हो रहा था I

“बचाओ! बचाओ! मेरा बच्चा डूब रहा हैI कोई मेरे बच्चे को बचा लोI” – एक अभागिन स्त्री नदी के किनारे व्यग्र होकर चीख और चिल्ला रही थी। सड़क से कुछ ही दूरी पर एक नदी बह रही थीI नदी के किनारे ही सड़क पर कई बच्चे भींगे खड़े थे जो उसी नदी में नहा कर निकले थे। उन्हीं में से एक बच्चा कुछ गहरे पानी में चला गया और डूबने लगा थाI पास में बैठी उसकी माँ कपड़े धो रही थी, जो अपने बच्चे को डूबता देख चीखने और चिल्लाने लगी थी।
श्याम मनोहर बाबू उस समय कालेज से लौट रहे थेI नदी की धारा में डूबते-उतराते एक बच्चा भी हाथ-पैर मारता दिखाई दिया थाI सारी स्थिति वह तुरंत ही समझ गएI फिर उन्होंने न आव देखा, न ताव, झट नदी की धारा में कूद गएI काफी मसकत करने के उपरान्त धारा की दिशा में ही कुछ दूर आगे उस बच्चे को उठाये किनारे पर निकल आये। बच्चा शायद कुछ पानी पी लिया थाI वह उसे उल्ट कर उसकी पीठ दबाते रहें, बच्चे के मुँह से कुछ पानी निकलें, जो सुखी जमीन को नम कर दिएI उसकी माँ बेहताश दौड़ी आई और अपने बच्चे को अपनी छाती से लिपटा कर खूब रोईI फिर तो वह श्याम मनोहर बाबू के पैरों को पकड़ कर रोने लगी, – “बाबु, आप हमरे बच्चे को बचाकर एक साथ दो जाने बचा दी। आप हमरे खातिर भगवान हैं, भगवानI भगवान आपको और आपके परिवार को हमेशा खुश रखेंI” – दुखियारी माँ की आँखों से प्रसन्नता और कृतज्ञता के आँसू झर-झर गिर रहे थेI
वही प्रसन्नता और संतुष्टि की भावना उनकी आत्मा को आनंदित किये हुई थीं जिसके बाह्य स्वरुप प्रसन्नता की लकीरों के रूप में इस समय बिस्तर पर पड़े मरणासन्न श्याम मनोहर बाबू के चहरे पर दिखाई पड़ रही थींI तुलसी बाबा का कथन अकाट्य ही है, – “जो जस करहीं, सो तस फल चाखा।।“ उसी का आभास इस समय श्याम मनोहर बाबू के चहरे पर स्पष्ट दिख रहे थेI लेकिन उस परमानंद के परम सुख को भला दूसरा कौन और कैसे महसूस सकता है?

माधवी सहित परिवार के कई अन्य सदस्य भी मरणासन्न श्याम मनोहर बाबू के मुखमंडल पर इसी तरह की प्रसन्नता और दुःख के अनगिनत आवरण आते-जाते देखती रहीI फिर शायद उनके विगत जीवन सम्बन्धित कर्मों का लेखा-जोखा का सम्पूर्ण रील समाप्त हो गयाI अब उनका शरीर बिलकुल ही शांत व स्थिर हो गया था। पर उनके आत्माविहीन चहरे पर प्रसन्नता की झलक अब भी मौजूद थी, शायद आखरी दृश्य सत्कर्म सम्बन्धित प्रसन्नता का ही रहा हो।

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