प्रेमचंद जयंती पर विशेष : “न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। “न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं” – इस यथार्थोक्ति को हिन्दी कथा सम्राट ‘मुंशी प्रेमचन्द’ ने अपनी बहुचर्चित कहानी “नमक का दरोगा” में धन और ऐश्वर्य जनित अहंकार से निर्मित उच्चासन पर बैठे पं. आलोपीदीन की मनोवृति और क्रिया-कलापों के संदर्भ में कहा है, जो लगभग शताब्दी बीत जाने के बाद भी आज सामाजिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिवेश में पूर्णतः प्रासंगिक बना हुआ है। हलाकि, आदर्शवादी कथाकार ने पाठकों को उचित शिक्षा देने के लिए उस कहानी के अंत में सत्य की रक्षा हेतु पं. आलोपीदीन के उस लक्ष्मी रूपी ‘खिलौने’ को दरोगा वंशीधर के कठोर दृढ़-संकल्पी ‘ईमान’ से टकराकर बिखरते भी दिखाया है।

परंतु वर्तमान परिवेश में ‘लक्ष्मी’ के बढ़ते प्रभुत्व को आप इंकार नहीं कर सकते हैं। देश-दुनिया में दिन-प्रतिदिन घटती घटनाएँ इस उक्ति की सार्थकता को सिद्ध करती हैं। यह सत्य है कि आज लोग अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए भी ‘लक्ष्मी’ सहित अपने ‘विशेष पद-ओहदे’ से अक्सर ‘सत्य-ईमान’ के मुख को दबाते नजर आते हैं। सहनशीलता और मौन-मुकता तो गरीब, दुर्बल, अशिक्षितों के ही विशेष आभूषण बन गई हैं। यही कारण है कि आज घर-परिवार से लेकर शासन-प्रशासन तक सर्वत्र ही अत्याचार और भ्रष्टाचार जनित प्रबल बवंडर बह चला है।

जिसमें मानवता प्रतिपल तिनके की भाँति उड़ती जा रही है। ऐसे ही सामाजिक सत्यों से हमें साक्षात्कार करवाने वाले माँ भारती के यशस्वी कालजयी “कलम के सिपाही” मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के पास ही ‘लमही’ नामक ग्राम में एक कायस्थ परिवार डाक मुंशी अजायब राय और आनंदी देवी के आँगन में हुआ था। इनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय श्रीवास्तव’ था, पर उनके दादा गुरु सहाय राय और एक चाचा महाबीर राय ने उन्हें ‘नवाब राय’ का उपनाम प्रदान किया था।

सात वर्ष की बाल्यावस्था में ही धनपत राय की माता और फिर सोलह वर्ष की तरुणाई में ही कोमल कंधों पर एक विमाता का अतिरिक्त बोझ डालकर उनके पिता मुंशी अजायब राय परलोक गमन किए। विमाता से अपेक्षित मातृत्व-स्नेह को न पाकर ‘धनपत’ अपने आप को पुस्तकों की दुनिया में समाहित कर लिया और किशोरावस्था में ही उन्‍होंने ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’, उर्दू के मशहूर रचनाकार रतन नाथ ‘शरसार’, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर, अंग्रेजी के जॉर्ज डब्ल्यू.एम. रेनॉल्ड्स आदि के कई उपन्‍यासों के स्वाद-रस को बड़े ही चाव से चख लिया था।

धनपत राय के साहित्यिक जीवन का प्रारंभ 1904-05 में ही उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से हो चुका था। उनका पहला उर्दू उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ है, जिसका हिंदी रूपांतरण ‘देवस्थान रहस्य’ नाम से तथा दूसरा ‘हमखुर्मा व हमसवाब’, जिसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से प्रकाशित हुआ। 1907 में देशभक्ति की भावना पर आधारित उनका उर्दू कहानी-संग्रह ‘सोज़े-वतन’ प्रकाशित हुआ। उस कहानी-संग्रह पर राष्ट्र-द्रोह का आरोप लगाकर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और नवाब राय को भविष्‍य में कुछ भी लिखने से पूर्णतः निषेध कर दिया।

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ऐसे में साहित्य रचना के क्षेत्र में प्रवृत नवाब राय ने तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासनिक सिकंजो से बचकर अपने साहित्यिक कर्म को निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कानपुर से प्रकाशित होने वाली ‘जमाना’ पत्रिका के सम्पादक मित्र मुंशी दया नारायण निगम द्वारा प्रदत्त छद्मनाम ‘प्रेमचंद’ को ही स्वीकार कर अब उर्दू के बदले हिंदी में साहित्य-सृजन के कार्य में प्रवीण हुए। हिन्दी में उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ कानपुर से प्रकाशित ‘जमाना’ पत्रिका के 1910 के दिसंबर के अंक में प्रकाशित हुई।

इसके बाद जीवन संगत आर्थिक विद्रूपताओं को सहते हुए भी लेखन-क्षेत्र में उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़ कर न देखा। कालांतर में वही ‘प्रेमचंद’ ने हिन्दी साहित्य जगत को अपनी सैकड़ों कहानियों, दर्जनों उपन्यासों, अनगिनत निबंधों, अनुवादों, आलेखों आदि से श्रीसमृद्ध किया। यह भी सत्य है कि जो व्यक्ति जितना भोगता है, जितना सहता है, जिसका वह जितना प्रत्यक्ष गवाह होता है, उसी को वह अपने शब्दों के माध्यम से अपने पाठकों के सम्मुख परोसता है।

यही भावना और कर्म ‘धनपत राय’ जैसा साधारण व्यक्ति को उर्दू के ‘नवाब राय’ बनाते हुए एक दिन हिन्दी उपन्यास और कथा सम्राट ‘मुंशी प्रेमचन्द’ के रूप में ‘कलम का जादूगर’ बना दी। मुंशी प्रेमचंद प्रगतिशील विचारधार से संबंधित लेखक थे। अतः अवसर मिलने पर उन्होंने अपनी बीमारी की अवस्था में भी लखनऊ में 1836 में आयोजित ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ के प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता की, जिसमें नोबल पुरस्कार से सम्मानित प्रथम भारतीय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेकानेक विशिष्ठ साहित्यकार उपस्थित थे।

हिन्दी साहित्य गगन का हमारा उज्ज्वलतम दिव्य नक्षत्र मुंशी प्रेमचंद असाध्य रोग से पीड़ित होकर शैय्या-सेवी के रूप में 8 अक्टूबर, 1936 को सदा के लिए माँ भारती की शांत गोद में सदा के लिए सो गया। किसी भी साहित्यकार के लिए उसकी अमूल्य साहित्यिक निधि होती है, संघर्ष की जमीन पर अटल रहने वाले इंसानी जिन्दगी में अपने मन को स्थापित कर उसकी मानवीय अनुभूति को निरंतर अध्ययन-मनन करना।

इंसानी जिन्दगी संबंधित दिन-प्रतिदिन की घटनाएँ ही उसकी एक नई ‘रचना’ हुआ करती है। उसे जाति, धर्म, वर्ग, प्रांत आदि के तथाकथित सामाजिक घेरे को तोड़ कर बाहर निकलना पड़ता है । मुंशी प्रेमचंद ने भी तथाकथित सामाजिक तमाम घेरे को तोड़कर हर स्तर के लोगों की जिंदगी में प्रवेश किया और उनकी दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को ही अपने शब्द-बंधन में बाँध कर उन्हें नई ‘रचना’ के रूप में प्रस्तुत किया।

मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे साहित्यिक व्यक्तित्व रहे हैं, जो ग्रामीण जन-जीवन के ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सर्वदा पोषक रहे हैं। वाह्य स्वरूप से पूर्ण रूपेण गंवई दिखने वाले, अन्तः में वह जीवट इच्छा-शक्ति के स्वामी थे। आडम्बर एवं दिखावे को वह अपने पास फटकने ही न देते थे। अपनी कथनी और करनी में अंतर न रखना ही जानते थे। न तो उन्हें विलास की चाहत थी और न ही अर्थ की कामना ही। वह किसी मजूर के समान ही निरंतर कार्य करने वालों में से थे। कार्य न कर पाने की स्थिति में, भोजन भी न करने के आग्रही थे। ऐसे उज्ज्वलतम मानवीय गुणों से परिपूर्ण थे, हमारे आदर्शवादी कथा सम्राट ‘मुंशी प्रेमचन्द’ जी।

मुंशी प्रेमचंद के लिए ‘कर्मभूमि’ और ‘रंगभूमि’ जैसा विस्तृत साहित्यिक कर्म-फलक था, जिस पर तत्कालीन सामाजिक मर्यादाओं की डोर में बंधित आजीवन समस्याओं से संघर्ष करने वाली अनगिनत ‘प्रभा’ और ‘निर्मला’ को घुट-घुट कर जीते-मरते उन्होंने देखा, अनुभव किया और उसे फिर अपनी रचना के माध्यम से चित्रित किया है। उन्होंने अपनी साहित्यिक विधाओं को सजाने के लिए कभी कथ्यों का कहीं से कोई ‘गबन’ न किया, बल्कि समयानुसार विविध ‘कायाकल्प’ को अपनाते हुए बिना किसी ‘वरदान’ के ही भारतीय समाज में ‘सेवासदन’ और ‘प्रेमाश्रम’ जैसे आदर्श को स्थापित किया है।

उन्होंने सामाजिक और आर्थिक वैषम्यताओं तथा समाज के तथाकथित ठेकेदारों पर शब्दों का भीषण कुठाराघात करते हुए अंततः अद्भुत ‘गोदान’ भी किया है। साथ ही साथ ‘पंच परमेश्वर’, बूढ़ी काकी’, ‘लाग-डाट’, ‘नमक का दरोगा’, ‘पुस की रात’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘ईदगाह’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘ठाकुर का कुँआ’ आदि सैकड़ों यथार्थ परक और आदर्शवादी कथ्यों से उन्होंने कई “मान सरोवर” को पूर्ण भी किया है।

Premchandएक ओर तो मुंशी प्रेमचंद ने आजीवन दरिद्रता युक्त कष्टों को झेलते हुए समस्याओं से सदैव लड़ने की जिजीविषा रखने वाले माटी से जुड़े गँवई साधारण पात्र होरी-धनिया, गोबर-झुनिया, नर्मला, बूढी काकी, खाला जान, पिसनहारी, हामिद की दादी अमीना, घीसू माधव, सूरदास आदि के प्रति अपनी गहरी साहित्यिक सहानुभूति को व्यक्त किया है, तो दूसरी ओर पं. अलोपिदीन, बुद्धिराम, कुंवर विशाल सिंह, डॉ. चढ्ढा, मातादीन, विप्र महाशय आदि जैसे भौतिकता के आग्रही शोषक अभिजात्य पात्रों पर कठोर शब्द प्रहार भी किया है।

जो गरीबों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संचित धन से ही उच्च शिक्षाओं को प्राप्त कर उन गरीबों से ही घृणा और निरंतर उनका ही शोषण भी करते हैं। उनकी क्रिया-कलापों और मनोवृतियों को समझने मात्र से ही हम पाठकों के मन में उनके प्रति तीव्र वितृष्णा की भावना जागृत होने लगती है। मुंशी प्रेमचन्द का व्यक्तिगत अनुभव भी अथाह था, क्योंकि वह आम जनता के बीच ही रहने वाले ही एक आम व्यक्ति थे। पीड़ित और सामाजिक उपेक्षित जनों में कर्मठता, साहसिकता और सामाजिक विकास के स्वप्नों को दिखाने के लिए उन्होंने अपनी कलम को सदैव प्रखर किया है।

उनके अनुसार धर्म का एक आदर्श स्वरूप होना चाहिए, जो प्राणी मात्र की सेवा, सहिष्णुता, पवित्रता, नेकनियत, त्यागशीलता, दया-सहानुभूति आदि आदर्श गुणों पर आधारित हो, न कि स्वार्थ पर। अतः वह ऐसे देवी-देवता या पैगम्बर-नबी या फिर मंदिर-मस्जिद को दूर से ही प्रणाम करते हैं, जो लोगों को मानवता के विरुद्ध भड़काते हों। वह तो ‘हिंसा परमो धर्मः’ कहानी के ‘जामीद’ के देहात के लोगों की क्रिया-कलापों को एक आदर्श समाज के लिए सार्थक मानते हैं, – ‘जामीद के देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मन्दिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज पढ़ लेते थे। हिन्दू एक वृक्ष के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे।’

मुंशी प्रेमचंद सदैव स्वार्थ रहित भावनाओं से प्रेरित मानव धर्म के आग्रही रहे हैं। जिसमें प्रेम, अहिंसा, भाई-चारे के भाव हो, एक दूसरे के दुःख-दर्द को समझने तथा उसे परस्पर बाँटने के लिए सभी लोग तत्पर रहें। जिसमें कोई शिशु दूध के लिए बिलखता न रहे, कोई बहु-बेटी का तन कपड़ों के बिना नंगा न रहे और मंदिर-मस्जिद में कोई दूसरा दूध-मेवा-मिष्टान उड़ाता भी न रहे। जिसमें गरीबों की सिसकियाँ और अमीरों का अट्हास न हो। इसीलिए ‘मुक्तिधाम’ का पात्र ‘रहमान’ गाय के प्रति अपने प्रेम को दिखाकर हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द्र को बनाये रखने का प्रयास करता है। इसी तरह की बातें ‘क्षमा’, ‘स्मृतिका’, ‘पुजारी’, ‘खून सफेद’ आदि कहानियों के माध्यम से कथाकार ने साम्प्रदायिक वैमनस्यता को दूर करने का वृहद साहित्यिक-कर्म किया है।

मुंशी प्रेमचन्द उस समरस समाज का स्वप्न देखा करते थे, जिसमें ‘अलगू चौधरी’ और ‘शेख जुम्मन मियाँ’ दोनों की थाली एक रहें। जिसमें ‘बूढ़ा भगत’ और ‘डॉ. चड्ढा’ दोनों एक-दूसरे की सहायता करने के लिए तत्पर रहें। जिसमें ‘खाला जान’ और ‘बूढ़ी काकी’ को अपनी भूख को मिटाने के किसी के सामने गिड़गिड़ाना न पड़े। सामाजिकता और साम्प्रदायिकता के घिनौनेपन के विरोध में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह सब के सब कल तो प्रासंगिक था ही, पर आज भी उतना ही प्रासंगिक ही है, शायद आगे भी प्रासंगिक ही रहेगा।

मुंशी प्रेमचन्द ने अपने बारे में स्वीकार किया है, – ‘मैं एक इन्सान हूं। जो इंसानियत में विश्वास रखता हो और इंसानियत का काम करता हो, मैं वही हूं। ऐसे ही लोगों को मैं चाहता भी हूं। मैं उस धर्म को कभी स्वीकार नहीं करना चाहता, जो मुझे यह सिखाता हो कि इंसानियत, हमदर्दी और भाई-चारा सब कुछ अपने धर्म वालों के लिए है और उस दायरे के बाहर जितने लोग हैं, सभी गैर हैं, और उन्हें ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं, तो मैं उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसंद करूँगा।’

हकीकत में मुंशी प्रेमचन्द एक युगद्रष्टा मानवतावादी लेखक थे। उपन्यास के क्षेत्र में उनके अद्भुत योगदान को देखकर ही बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ कहकर संबोधित किया था। ऐसे महान उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद को आज उनके पावन 143वीं जयंती पर हम उन्हें सादर स्मरण कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं। (प्रेमचंद जयंती, 31जुलाई, 2023)

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा,
अध्यापक व लेखक,
हावड़ा – 711101
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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