हिंदी दिवस पर विशेष…“हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की अस्मिता है”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । माँ भारत और भारती की अमर वाणी व अस्मिता की पहचान, संस्कृत की प्यारी दुहिता, संत-मनीषियों तथा स्वतंत्रता संग्रामियों की संपर्क-वाणी ‘हिन्दी’ पर हमें गर्व है। प्राचीन काल में चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर हर्षवर्धन आदि सम्राटों ने हिन्दी के ही प्रारम्भिक भाषारूप अपभ्रंश, अवहट्ट, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, मागधी आदि को जनसंपर्क की भाषा बना कर विशाल भारतवर्ष की एकता को अक्षुण्ण बनाए रखा था। इन्हीं प्रारम्भिक भाषारूप में ही हमारे देव तुल्य समादृत गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, आदि शंकराचार्य, गोरखनाथ, गुरु नानकदेव आदि ने अपनी अमर वाणी को प्रचारित कर भारतीय मानस को आत्मीय शांति प्रदान की थी। तदोपरांत हिन्दी के परवर्तित रूप डिंगल, पिंगल, मैथिली, अवधि, ब्रज आदि भाषाओं में ही चंदरवरदायी, विद्यापति, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा आदि ने सम्पूर्ण भारतवर्ष में सरस भक्ति-धारा को प्रवाहित किया था। बाद में इसको भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि ने सजाया और संवारा तथा जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद आदि ने सुसमृद्ध किया है। आज वह ‘हिन्दी’ भारत की राजभाषा और जनसंपर्क की भाषा है।

Sriram pukar Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा

देश की स्वतंत्रता संग्राम का स्वरूप भले ही अलग-अलग रहा हो, परंतु सबके विचार-विमर्श और संपर्क की भाषा ‘हिन्दी’ ही रही है। हिन्दी ने पूर्व में पद्मा पार के क्षेत्र से लेकर पश्चिम में सिंधु क्षेत्र तक और उत्तर में तुंग हिमालय प्रदेश से लेकर दक्षिण में समुद्र तटीय प्रदेश तक को अपने में समिष्ट कर भारतवासियों के मन में स्वतंत्रता की झंकार को झंकृत कर देश की आजादी की लड़ाई हेतु सबको प्रेरित की थी।

स्वतंत्रता संग्राम में ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ जैसे ओजस्वी नारा देने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का कहना था, – “यदि देश में जनता के साथ राजनीति करनी है, तो उसका माध्यम हिंदी ही हो सकती है। इसलिए कोंग्रेस का सभापति होकर मैं अच्छी तरह से हिंदी न जानू तो काम नहीं चलेगा। मुझे एक मास्टर दीजिये जो हमेशा मेरे साथ रहे और मुझे जब समय मिले, तब मैं उनके साथ बैठ कर अच्छी हिन्दी सिखता रहूँ।” जगदीश नारायण तिवारी, जो उस समय कोंग्रेस के कार्यकर्त्ता थे और हिन्दी के अच्छे अध्यापक भी थे, उन्हें सुभाष बाबु के साथ रखा गया। सुभाष बाबु ने बड़ी लगन के साथ हिन्दी सीखी और फिर वे बहुत ही अच्छी हिन्दी पढने, लिखने और बोलने लगे थे। यहाँ तक कि ‘आजाद हिन्द फौज’ का सारा काम और उनका सारा व्यक्तव्य हिन्दी में ही होने लगे थे।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने सर्वप्रथम 1917 में भरूच (गुजरात) में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी। तत्पश्चात सन् 1918 में ही उन्होंने ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ वाराणसी में हिंदी भाषा को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने को कहा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर 14 सितम्बर, 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद हिन्दी को ‘राजभाषा’ के रूप में स्वीकृत प्रदान की गई। भारतीय संविधान के भाग 17 के अनुच्छेद की धारा 343 के (1) में लिखा गया है, – “संघ की राजभाषा ‘हिन्दी’ और लिपि ‘देवनागरी’ होगी। ……26 जनवरी 1965 के बाद संसद की कार्यवाही केवल हिन्दी में ही निष्पादित होगी, बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्य व्यवस्था न करे।”

चुकी यह निर्णय 14 सितम्बर, 1949 को लिया गया था अतः सरकारी, अर्धसरकारी कार्यालयों तथा बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को या फिर उसके इर्द-गिर्द ही ‘हिन्दी दिवस’, ‘हिन्दी सप्ताह’ और ‘हिन्दी पखवाड़ा’ के रूप में मनाने की परम्परा चल पड़ी है। जबकि विश्व में हिन्दी को प्रचारित-प्रसारित करने के उद्देश्य से प्रथम ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ का आयोजन 10 -12 जनवरी, 1975, नागपुर में हुआ था। उसमें 30 देशों के 122 प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंद्रा गाँधी ने किया था। इसका बोधवाक्य ‘वसुधैव कुटुंबकम’ था। इस सम्मेलन में प्रारित प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘संयुक्त महासंघ’ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाया जाय। ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ की प्रासंगिकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए वर्ष 2006 से प्रतिवर्ष 10 जनवरी को ‘अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है।

हिन्दी को प्रथम बार विश्व मंच पर लाने का सार्थक प्रयास हमारे पूर्व प्रधान मंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी ने ही किया था। उन्होंने 4 अक्टूबर 1977 को विदेश मंत्री के रूप में ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा’ के अधिवेशन में हिन्दी में अपने जोरदार भाषण के माध्यम से ‘संयुक्त राष्ट्र महासंघ’ से हिन्दी के लिए उचित स्थान की पूरजोर माँग की थी। लेकिन आज तक हिन्दी को ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में उसका उचित स्थान न मिल पाया है।

कुछ हद तक सही भी है। जब हम अपने घर में ही हिन्दी को उचित स्थान नहीं दे पा रहे हैं, तो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उसके उचित सम्मान का भरोसा लगाये रखना हास्यस्पद ही है। हमारे भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को आधिकारिक राजभाषा के रूप में स्वीकार भी किया है, परन्तु हिन्दी को आज तक उसका उपयुक्त प्रशासनिक अधिकार नहीं प्राप्त हो पाया है। यह कैसी विडंबना है कि मात्र दो-तीन प्रतिशत अंग्रेजी परस्त लोग देश की 97-98 प्रतिशत लोगों पर जबरन भाषीय आधिपत्य जमाए हुए हैं। ऐसे ही चंद अंग्रेजी परस्त लोगों ने सन् 1963 में ‘राजभाषा अधिनियम’ में अनुचित संशोधन भी किया, जिसके अनुसार जब तक एक भी राज्य हिन्दी का विरोध करेगा, तब तक हिन्दी को उसका वर्चस्व प्राप्त नहीं हो सकता है। फिर हिन्दी बनाम प्रांतीय भाषाओं के विवाद को उनलोगों ने हवा देकर भारत को उत्तर (हिन्दी पक्षधर) और दक्षिण(हिन्दी विरोधी) के रूप में विभक्त भी कर दिया है। फिर हिन्दी उत्तर और दक्षिण के भाषागत विवाद में फंस कर ही रह गई। परिणाम स्वरूप आज तक हिन्दी को उसका अपेक्षित गौरव प्राप्त नहीं हो सका है।

हिन्दी एक वैज्ञानिक और व्यवस्थित भाषा है। अंग्रेजी परस्त अखबार, राजनीतिज्ञ और प्रबुद्धजन अपने प्रभुत्व की रक्षा हेतु हिन्दी की महत्ता को उजागर नहीं होने देते हैं। फलतः हिन्दी समृद्धशाली भाषा होने के बावजूद भी अपने ही घर में अपने ही लोगों द्वारा हेय दृष्टि से देखी जा रही है। आज ‘हिन्दी दिवस’ सिर्फ दिखावे का पर्व मात्र बन कर रह गया है । यह हमारी मातृभाषा है और यह हमारे लिए केवल एक भाषा मात्र ही नहीं, बल्कि यह हमारी मातृ सदृश आदरणीय है। अतः हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए किये गए कार्य हमारे लिए कोई उत्सव नहीं, बल्कि अपनी माता की सेवा स्वरूप विशेष कर्तव्य भी है।

इसके लिए आवश्यकता है कि सभी हिन्दी प्रेमी अपने रोजमर्रा की जिंदगी में अधिक से अधिक हिन्दी का भरपूर प्रयोग करें। अपने गैर-हिन्दी मित्रों के बीच बातचीत में भी हिन्दी का ही उपयोग कर उन्हें भी हिन्दी में बोलने और समझने के लिए प्रोत्साहित करें। इससे हमारी हिन्दी और अधिक समृद्ध होगी।

देश की आजादी प्राप्ति के उपरांत हिंदी के अवनत के कारण कोई और नहीं, बल्कि हम-आप हिन्दी भाषा-भाषी ही हैं। हम-आप हिन्दी बोल कर तथाकथित पश्चिम हाई क्लास की सोसाइटी में अपने आप को सशंकित और तुच्छ महसूस करते हैं। सार्वजनिक स्थानों में हिन्दी बोलने में हम शर्म महसूस करते हैं। जबकि ऐसी बात नहीं है।

लेकिन हिन्दी प्रशासनिक तौर पर भले ही न सही, प्रचलन के क्षेत्र में एक लम्बी छलांग लगाईं है। अब हिन्दी केवल भारत ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व में लगभग आठ सौ करोड़ लोगों द्वारा बोली-समझी जा रही है। फिजी, सूरीनाम, मारीशस, नेपाल, त्रिनिदाद, गुयाना, में हिन्दी को लगभग वही स्थान प्राप्त है, जो इसे भारत में प्राप्त है। हिन्दी बोलनेवाले की संख्या मंडेरियन (चीनी) तथा अंग्रेजी भाषा बोलने वालों के बाद विश्व में सबसे ज्यादा है।

सारी दुनिया में हिन्दी को प्रचारित और स्थापित करने के तीन महत्वपूर्ण कारक हैं। प्रथम – सारे संसार भर में बसने वाले भारतवंशी, द्वितीय – भारतीय हिन्दी फ़िल्में तथा दूरदर्शन पर प्रसारित हिन्दी भाषीय कार्यक्रम और तृतीय – विदेशी विद्वानों द्वारा हिन्दी का प्रसार कार्य।

पिछले लगभग दो सौ वर्षों से भारतवंशी विभिन्न देशों में कामकाज के लिए प्रवासी बने हुए हैं। ये सभी केवल हिन्दी भाषा-भाषी ही नहीं हैं, बल्कि गैर-हिन्दी भाषीय भी हैं, जो भारत से बाहर हिन्दी के साथ ही जुड़ जाते हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में हमारे प्रवासी भारतवंशियों का योगदान स्वागत तथा नमन योग्य है। उनकी शायद यही इच्छा है –
‘रोक मत, बढ़ने दो इसे सदा आगे, हिन्दी जनमत की गंगा है,
यह माध्यम है उस स्वाधीन देश का, जिसका ध्वज तिरंगा है।’

सारी दुनिया में हिन्दी को स्थापित करने में हमारी भारतीय हिन्दी फ़िल्में और टेलिविज़न पर प्रसारित हिन्दी कार्यक्रम का भी विशेष योगदान है। अफ्रीका से लेकर यूरोप, अमेरिका, चीन आदि देशों में इस महान कार्य को वस्तुतः 20 शताब्दी के महान व्यक्तित्व (showman) स्व. राज कपूर जी ने प्रारम्भ किया था। एक दौर में सोवियत संघ की जनता राज कपूर की ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘मेरा नाम जोकर’, समेत तमाम फिल्मों को इसीलिए पसंद करती थी क्योंकि उनमें उनके लिए आशा की एक किरण देखती थी, भविष्य को लेकर सम्भावनाओं का संदेश मिलता था। हिन्दी फ़िल्में विदेशों में जमकर देखि जाती है। आमिर खान चीन के सुपर स्टार बने हुए हैं।

अफ्रीका के मिशे देश के सबसे बड़े नायक अमिताभ बच्चन हैं। वहां के सड़कों पर चलने वाले हर व्यक्ति को अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों के चुनिन्दा संवाद याद है। पूर्वी अफ्रीकी देशों जैसे केन्या, तंजानिया, युगांडा में धर्मेन्द्र खासे लोकप्रिय हैं। हिन्दी फिल्मों के गीतकार जैसे जावेद अख्तर, शैलेन्द्र, आनंद बक्षी, साहिर लुधियानवी, नीरज, समीर, प्रशुन जोशी आदि किसी भी नामवर लेखक या कवि से कम नहीं हैं। इनके हिन्दी में लिखे गीत देश के बाहर भी करोड़ों लोग गुनगुनाते हैं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दूरदर्शन धारावाहिकों ने विश्व भर में हिन्दी जागरण की क्रांति ही पैदा कर दिए।
‘है प्रीत जहाँ की रित सदा, मैं गीत वहीँ का गाता हूँ,
भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात बताता हूँ।’

ब्रिटेन के प्रोफेसर रोनाल्ड स्टर्टमेक्ग्रेगर हम-आप से कहीं ज्यादा हिन्दी के सच्चे सेवक हैं। वे उच्च कोटि के भाषा विज्ञानी, व्याकरण के विद्वान्, अनुवादक, हिन्दी साहित्य के इतिहासकार भी रहे हैं। वे सन् 1964 से 1997 तक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में लगातार हिन्दी पढ़ते रहें और विश्व-स्तर पर हिंदी-प्रेमियों की संख्या बढ़ा रहे हैं। इन्होने आ. राम चन्द्र शुक्ल पर काफी गहरा शोध भी किया और उनके ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ पर दो खंड पुस्तिका भी तैयार किये हैं।

इसी तरह से चीन के प्रोफ़ेसर च्यांग चिंगख्वेई ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन ही हिन्दी के नाम पर समर्पित कर दिया। वे लगभग 28 वर्षों से पेचिंग यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ा रहे हैं और जापान में जापानियों का हिन्दी दल निर्माण कर रहे हैं। जापान के विश्वविद्यालय में भी इसी तरह से कई जापानी हिन्दी विद्वान् हिन्दी की सेवा में पूर्ण रूपें समर्पित हैं।

बेल्जियम के फादर कामिले बुल्के ने हिन्दी प्रेम में अपनी मातृभूमि को छोड़ कर भारत में आकर ‘रामायण के प्रकांड पंडित’ बने और हिन्दी की भूमि (राँची) में ही सदा के लिए रच-बसकर अंत में इसी में सदा के लिए सो गए। इन विदेशी हिन्दी प्रेमियों पर हमें गर्व होना चाहिए।

हमारा प्रयास होना चाहिए कि विश्व भर में हिन्दी सेवकों की संख्या निरंतर बढ़ाई जाय, जो हिन्दी के प्रति लोगों में प्रेम पैदा कर सकें। इसके लिए हिन्दी सम्बन्धित अनगिनत संस्थाओं को निःस्वार्थ भाव से आगे आना होगा। परंतु पहले हिन्दी को अपने देश में ही सम्मानित स्थान प्रदान करना होगा, तभी हिन्दी को विश्वस्तर पर सम्मान प्राप्त हो सकेगा और हमारा लक्ष्य सिद्ध हो सकेगा। तभी ‘हिन्दी दिवस’ का औचित्य भी सिद्ध हो पाएगा।
आज हम समस्त भारतीयों को एक शपथ लेने की आवश्यकता है कि स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दी को जो आश्वासन दिया गया था, उसे अवश्य ही पूरा करेंगे।
‘गूंज उठे भारत की धरती, हिन्दी के जय गानों से।
पूजित पोषित परिवर्द्धित हो बालक वृद्ध जवानों से।।’

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक, श्री जैन विद्यालय
हावड़ा -1
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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