रूपल की कविता : “माँ”

माँ

कई दिनों से माँ को हर रोज़
रात को फ़ोन करती हूँ सोने से पहले
फ़ोन पर कहना चाहती हूँ कि
तुम्हारे स्पर्श और आलिंगन के बिना
पीले कनेर की तरह सूख रही हूँ
अदृश्य हो रहे है मेरी आँखों से
घर तक पहुँचने वाले सारे रास्ते
मुझमें से जो तुम्हारे शरीर की गंध आती थी
वो भी अब कुछ मध्यम पड़ गई है
और जबाब में जब माँ की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती है
तब गला रुंधने लगता है
आँखें दर्द से रिसने लगती है
सोचती हूँ मैं अपने एकाकी का दुःख और उसके बिछोह से हृदय में उठती पीड़ा के स्वर को कैसे दबाउं
तब तक माँ मुझे महामारी से मरने वालों के आँकड़े बताने लगती है,
वह टीवी पर समाचार सुन कर मुझे ढेर सारी हिदायतें देती हैं
मैं पूछती हूँ पिताजी का हाल
तो कहती है, वो अब फैक्टरी जाने लगे है
वहाँ 150 लीटर सैनिटाइजर लाया गया है
डरने की बात नहीं है
घर में राशन भी भरापूरा है
मैं अपनी परिपक्वता साबित करने के लिए
फ़िर नहीं कह पाती
कि माँ तुम्हारी याद आती है
तुम्हारे आलिंगन के बिना
अपने अंतस के रिक्तता में
फिसलते जा रही हूँँ

© रूपल

शोधार्थी (पी.एचडी)
विद्यासागर विश्वविद्यालय, मिदनापुर

1 thoughts on “रूपल की कविता : “माँ”

  1. Vibha Rani Shrivastava says:

    आपकी लिखी रचना “पांच लिंकों का आनन्द में” शनिवार 12 फरवरी 2022 को लिंक की जाएगी …. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा … धन्यवाद! !

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