“चित्”
चित् में जितने ग़म थे,
सब ओझल से हो गए
जब कुछ दर्द उभर कर,
दूर से ही खो गए।
खो दी उस बूंद ने
अपनी ही कीमत जब,
झरने से निकल कर
समंदर की हो गई।
न रह गया विश्वास
न रह गई उम्मीद
जब दो चेहरे सिर्फ एक के हो गए।
भाव भी बदला, रूप भी बदले,
अब दिल को नए
रंग से मिल गए।
सपनों की दुनिया,
सपनों में ही खो गई
जब हालात से आंखे
रूबरू सी हो गई।
चित् में जितने ग़म थे,
सब ओझल से हो गए
जब कुछ दर्द उभर कर,
दूर से ही खो गए।
-रिया सिंह ✍🏻
स्नातक, तृतीय वर्ष, (हिंदी ऑनर्स)
टीएचके जैन कॉलेज