।।धूप आज कुछ देर से निकली।।
राकेश धर द्विवेदी
धूप आज कुछ देर से निकली कोहासा धीरे-धीरे हटने लगा
चिड़ियों की चहक महक कुत्तों का आर्तनाद
उनके बीच से उभरता हुआ एक अस्पष्ट स्वर,
स्वर के बोल शायद सिमटी हुई कातरता,
खरीददार चाहिए- खरीददार चाहिए
उत्सुकता ने जोर मारा, मैं घर की चहारदीवारी पर पहुंचा
देखा एक कृषकाय युवक हाथ में खादी का झोला, चेहरे पर तनाव की मुद्रायें और कद मझोला,
मैंने पूछा मित्र तुम क्या बेचना चाहते हो?
प्रत्युत्तर मैं अपने सपनों को बेचना चाहता हूँ, खरीददार चाहिए
मित्र तुम्हारे सपने क्या हैं?
खादी के झोले में रखी कागज की प्रतियां
ये मेरे जीवन के विगत पच्चीस वर्ष की कमाई है मैं इसे बेचना चाहता हूँ
कुछ ठगा सा स्तब्ध सा उसे देख रहा था, वह शायद समझ गया था कि मंजिल अभी दूर है वह आगे बढ़ गया
मैंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा सूरज अब सिर पर आ गया था।