।।समय का सूरज।।
राजीव कुमार झा
वह गीत लिखता
गुनगुनाता
कभी खुद के पास
जब आता
गीत गाता
अनगिनत दिन
रोज सबके साथ
घर पर बिताता
रात में चांद को
हंसिया दिखाता
धान गेहूं के खेत
चांदनी रात में
दूर तक फैले हुए हैं
दिपावली के
घरौंदे में
सोया कवि
सुबह हवा की
आहट से
जब जाग जाता
कविता लिखने में
अपना सारा समय
दिनभर बिताता
सबकी आत्मा में
सूरज का प्रकाश
फैलाता
जीवन की
अनगिनत किरनें
हर जगह
अब छा गयी हैं
इस बीच
रोशनी से भरे
मैदान में आकर
युद्ध की
हर संभावना के
बीच
शंखघोष किसने
किया है
उसी ने धर्म के
निर्वहन का भार
क्या सबसे
बिल्कुल अकेले ही
लिया है !
समय का सूरज
चमकता है
सबके बुझे मन में
लौ अकेली
जल रही है
यह दायित्व है
सबका
देखना उसको
जिसने पुकारा
पांडवों को
नीति की उस राह पर
चलकर
अकेला आदमी
जब कुछ सोच पाता है
आगे दुष्टता के
प्रतिकार के रथ पर
अब चढ़कर चला है
सबकी आत्मा को
पहचानता है
समय को जानता है
धर्म, शासन
अध्यात्म – चिंतन
सभ्यता संस्कृति की
बागडोर
सबकुछ सुरक्षित है
बचाना चाहते हो
गर यहां
संघर्ष के पथ पर
तब तुम
खुद ही चलोगे
जब सबकुछ
हार जाओगे
याद आएंगे
वे दिन सारे
अपने पैरों से
जिन्हें तुमने
गहा है!
सागर के किनारे से
यहां तुम लौट
आये हो!
सुबह सूरज उगा
किस पहाड़ के
पीछे
सुनहरी किरनें
सबके हृदय में
मुस्कान लेकर
आयीं!