राजीव कुमार झा की कविता : वसंत का गीत

।।वसंत का गीत।।
राजीव कुमार झा

सागर का
एकांत किनारा
उग आया
संध्या का तारा
मन की धूप
बिखर गयी
बूंदाबांदी शुरू हुई
हवा का झोंका
आम की डाली
कितनी सुंदर
सुबह की लाली
जंगल थोड़ी दूर खड़ा है
आज बेवजह राह में
कौन मरा है
वह खूब अकेले
आंखें मूंद कर
अब कहां पड़ा है
बाहर खौफ भरी
रातों के पीछे
चांद झांकता
तट के नीचे बहती
जीवन नदिया की
गहरी धारा
घूम रहा वह वक्त का मारा
किस कुएं का पानी खारा
याद करो
मन की बरसाती में
कल से चुप बैठा
हवा का पारा
तुमने जंगल में
शोर मचाया
कोयल ने तब आकर
सबको वसंत का

मादक गीत सुनाया
आया सुंदर हवा का झोंका
सबने उसको
उसी दिशा में रोका
आज सुनहली किरनों ने
धूप की माला
हरी भरी
धरती को पहनाया
अरी सुंदरी!
भुवन मोहिनी
किसने तुमको पाया
ओ ग्रीष्म की छाया
अरी दुपहरी!
तुम राहों में
उसी पेड़ के नीचे ठहरी
बीत गये जो दिन अंधियारे
यादों के पंछी
कहां पास अब आये
उनको पास कहां अब पाए
उसी शाम को
ढलता सूरज
तारों को पास बुलाए
सबके मन की
झिलमिल आभा में
खिले कमल के फूल सुवासित
सुंदरियों ने खूब श्रृंगार रचाया
मन का दीपक यहां जलाया
यह रात आज सुंदर है

राजीव कुमार झा, कवि/समीक्षक

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