
।।साहित्य प्रबंधन।।
किसे कहते हो तुम कविता?
लय, रूपक, श्लेष में अलंकृत।
तुकांत शब्द-विन्यास!
या फिर सहज, उन्मुक्त, स्वत: प्रस्फुटित मन का मौलिक उच्छवास!
जिनकी छद्म भावुकता में सनी प्रस्तुति में…
ढुंढे से नहीं मिलती, अपनी छवि, दिल अपना-
क्यों करते रहते हो, उन्हें महिमा मंडित,
बिना कोशिश महसूस भी नहीं होती जिनकी रचना?
इन्हें तो न सिर्फ़ पढ़ाना, बल्कि समझाना, रटाना…
भावार्थ भी स्मृति में आरोपित करना पड़ता है!
बस इतनी सफलता तक,
कि परीक्षा बीत जाये..
तो भूल जाने को जी चाहे!
सूरदास, शेक्सपीयर या ग़ालिब की-
‘ममी’ सुरक्षित रखने, महकाने के लिए बुरी तरह चूस रहे हो तुम!
अधखिले पुष्पों के पराग को!
मानो बुद्धिजीवियों की आजीविका के लिए,
संसाधन हो, छात्रों का पाठ्यक्रम!
दूसरी तरफ, हाशिए पर खिसकते गये,
अधिकतर समकालीन साहित्यकार!
कुछ ऐसा हुआ हश्र तुम्हारी सियासत में…
‘कैफ़ी आजमी व ‘प्रेमचंद’ सरीखों का कि यह सोचकर रोज़ घर से निकले-
कि अगर सम्पादक रचना स्वीकार कर ले…
तो सब्ज़ी भी घर लेता चले!
क्या फकत चंद अदीबों के हक़ में?
गढ़ना होता है तुम्हें पाठ्यक्रम?
या नयी पीढ़ी में भी सृजन की विधा,
विकसित करने के लिए?
पाठ्यक्रम के संरक्षण में फैले,
साहित्य के काला बाज़ार ने –
कुछ इस तरह बंध्या कर दिया है, युवा सृजन को!
कि अब हर रचना धर्मी मेधावी,
समर्पित है केवल; प्रबंधन, चिकित्सा या अभियांत्रिकी को!
दिल को पेसमेकर पहनाने वाला..
संजीवन दे सकता है धड़कन की!
पर करोगे क्या उस धड़कन का?
कमी हो जिसमें संवेदन की?
बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करने वाला,
नहीं समेट पा रहा गांव के खंडहर को!
बहु राष्ट्रीय कम्पनी को जोड़ता प्रबंधक भी?
क्या सहेज पा रहा है, अपने बिखरते घर को??
तो फ़िर क्या मात्र भौतिक उपलब्धियां ही..
दे पायेंगी ऑक्सीजन, अपनेपन की!
जो भर आयें आंसू, तो मुस्कान के लिए..
आवश्यकता है होंठों पर, मन के स्पंदन की!
यह स्पंदन ही है कविता!, इसे स्वतः लरजने, पनपने दो!
भावनायें उधार नहीं ली जातीं!
हर मन को कवि बनने दो!
प्रत्यारोपण से बचने दो!
अपनी कविता कहने दो..
शिक्षा की सांस पर..
विद्या को भी जीने दो!
श्री गोपाल मिश्र
(काॅपीराइट सुरक्षित)
