“गरिमा”
जी हाँ ! प्यारे मित्रों,
मैं भी नाटक करता हूँ
कलाकारी पेशा है मेरा
पर,कलाकार नहीं हूँ।
लिखता कहानी वही हूँ,
जिसे तुम दिखाते हो।
संवाद ही तो भरता हूँ,
मंचन जिसे करते तुम हो।
भाव मेरी कलम रचे,
भंगिमा को तू नखरे।
मेरी सोच की बहुत दूर,
क्या गर्त क्या क्या सुदूर।
हाँ, रचना धर्म है मेरा
कभी गीत कभी ग़ज़ल,
कलम उकेरती दर्द मेरा
कभी तोता कभी बुलबुल।
मेरे गीतों को स्वर देना
ग़ज़लों को भाव देना,
जुड़ी है प्रभुता तुझी से,
मेरे शब्दों को अम्ल देना।
तू ही शुभचिंतक है मेरा,
तू ही तो किरदार है मेरा।
तेरे ही मन में बसता हूँ,
तुझे ही मंच का दर्शाता हूँ।
लोग कहते दूजे के यार,
हू्ँ ना! मैं भी नाटककार।
बिन मेरे परदे उठते कहाँ,
बिन तेरे शाम रुकी कहाँ।
बधाई मित्र तेरी सोच को,
मुझे गरिमा का दान दिया।
अकेली लेखनी भी करे क्या,
दुनिया ढूँढे नई, पुरानों में क्या।
खड़गपुर/प.बं.