और गलत तू भी नहीं
जानते तुम भी थे,
समझता मैं भी था,
फिर क्यों नहीं इकबार यूँ इकबालिया कहा?
सच तो तुम भी थे,
गलत यूँ मैं भी न था,
फासले फिर भी क्यूँ कम न हुए,
नदी के पाट ज्यों कभी न मिले।
सोच का फासला सिमट न सका,
बात मंजर पे कभी आ न सकी,
आज जब बैठकर तनहाई में,
देखता हूँ तेरी रुसवाई को,
नदी का तीर याद आता है,
हरा था तीर तेरा जब भी मैं नजर डालूँ,
तेरी तरफ से भी तो ये तीर यूँही दिखता था।
फासले कम न हुए, दूरियाँ न दूर हुई,
क्योंकि सच तू भी था पर गलत मैं भी नहीं।
बात बस इतनी थी,
तू देखता हमें था उस किनारे से,
मैं आजमाता तुझे इस किनारे से,
पहुँच न पाये हम किसी मुहाने पे,
बात बस इतनी सी थी,
सही तू भी था
और गलत मैं भी नहीं।
प्रमोद तिवारी