प्रमोद तिवारी की कविता – कुरूक्षेत्रः मेरी नजर से (प्रथम भाग)

कुरूक्षेत्रः मेरी नजर से (प्रथम भाग)

रण की भेरी बज गई,
बर्छियाँ थी तन गई,
अस्त्र सब निकल गये,
मान इनके बढ गये।

महारथी की टोलियाँ,
लगा रहीं थी बोलियाँ,
नशे मे चूर थे सभी,
था दर्प सर पे डोलता,
जुबान चढ के बोलता।

हवा भी गर्म हो गई,
उन्माद मे थीं भर गई,
कौन जीतेगा ये रण,
या हार कौन जायेगा,
ये बात क्यूँ विचारता?
प्रबुद्ध जन ये जानता।

कहीं थे अर्जुन,भीम वीर,
कहीं पे कर्ण,भीष्म हैं,
सभी बंधे थे युद्ध से,
सभी बिंधे थे युद्ध मे,
ये युद्ध खानदान का,
ये युद्ध दिवा रात का।

कोई लिए था ध्वज नया,
किसी के हाथ शंख था,
कृपाण कहीं चमकती,
कहीं पे धनुष बाण थे,
गदा, भी कांधे शोभती,
थे भाले भी जहर बुझे।

कहीं पे जत्थे अश्व के,
गजराज हैं खडे कहीं,
कहीं पे चक्रव्यूह है,
रथी के साथ सारथी,
कहीं पे पैदल हो लिए।

न नींद अब लुहार को,
न नींद में गंधारी है,
थी धौकनी चलती रही,
जबतक न हाथ अस्त्र थे।

दुर्योग टालता नहीं,
दुर्योधन मानता नही,
ये रण बडा अजब सा है,
ये क्षण बडा गजब सा है।

हैं ज्ञानी एक एक से,
नीतिज्ञ एक एक से,
न इनका कोई सानी है,
पर बात सब बेमानी है।

भीष्म जड से हैं हुए,
वचन से वे बँधे हुए,
कृपा हैं बुत बने हुए,
और मौन मे ही द्रोण हैं।

धृतराष्ट्र क्या न जानता,
प्रपंच पर है पालता,
ये पुत्र मोह है बडा,
वो सत की राह में खडा,
है दर्द उसको नीति का,
जो मानता अनीति को,
शकुनि था पासा फेंकता,
कि अर्थ हो अनर्थ हो,
पर पासे नाही व्यर्थ हो।

जमा यहाँ नरेश सब,
है दर्प जिनका टपकता,
कोई खडा है पक्ष मे,
कोई खडा विपक्ष मे,
यह रण न भूमि के लिए,
ये रण न धन के वास्ते,
ये रण है स्वाभिमान का,
ये रण है अहंकार का,
ये रण है धर्म के लिए।

लडेंगे वीर सूरमा,
की दिव्य अस्त्र आयेंगे,
सफल वही विफल वही,
जिसे भी कृष्ण चाहेंगे।

इस रण का जो भी फल रहे,
इस रण मे जो सफल रहे,
इस रण मे जो विफल रहे,
सभी बनायेंगे यहाँ,
मिशाल इक नया नया,
इतिहास जिसको गायेगा।

थे वासुदेव सोचते,
थे युत्ति मे लगे हुए,
ये युद्ध रोक लूँ जो मैं,
विनाश रोक लूँ जो मैं,
अकाल काल जाने से,
सकल जहाँ बँचा जो लूँ
पर व्यर्थ उनकी बात है।

पर काल ये विकराल है,
है नाचता ये मौत बन,
न जाने किसको मारेगा,
क्या दुर्योधन ही हारेगा।

विचार मे पडे हैं आज,
नियंता भी त्रिलोक के,
इस युद्ध मे मरेंगे जो,
इस युद्ध मे जो मारेगा,
सभी है अंश कृष्ण के,
ये युद्ध मात्र छद्म है,
रथी भी छद्म है सभी,
न कर्ण है,न भीम है,
यहाँ पर सिर्फ एक है,
जो मारता वो खुद ही है,
जो मर रहा भी खुद ही है,
विचित्र माया जाल है,
विचित्र लीला रच रहे,
धरा को ज्ञान दे रहे,
अज्ञान पर न मानता,
है दौडकर वो बाँधता।

प्रमोद तिवारी

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