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“फूल की सादगी”
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पौधों की शान हूँ मैं
कली से फूल में परिवर्तित होकर
बहारों में खुशबू बिखेरती हूँ मैं ।
सुन्दरता देखकर मेरी
बेरहमी से हर कोई
तोड़ ले जाता है मुझको ।
आदत से मजबूर हूँ मैं
उनकी दी ज़ख्मों को सहकर
खुशबू उन्हीं पर लुटाती हूँ मैं ।
यही कर्म, यही धर्म है मेरा
औरों को बाँटकर खुशी
गम सारे ले जाती हूँ मैं।
गोपाल नेवार, गणेश सलुवा