” ठूंठ “
लहलहाता था, छाया भी देता था।
हवा बहाता था, ठंड पहुंचाता था।
वृक्ष था मैं हरा भरा ,
कितने पक्षी मुझ पर घोसला बनाते थे,
कितने ही प्रेमी युगल मेरी छाया तले
प्रेम के गीत गुनगुनाते थे।
कुछ वृद्ध दोपहर में मेरी छांव में
अड्डा जमाते थे,
जम के ठहाके लगाते थे।
बच्चे मेरी डालों पर झूला झूलते,
धमाचौकड़ी मचाते थे।
धीरे धीरे समय बदलता रहा,
मेरे पत्ते झड़ने लगे,
शाखाओं से हरियाली जाने लगी,
जड़ों ने पानी खींचना छोड़ दिया,
वे सभी जो मेरे बहुत करीब थे,
उन्होंने मुझसे नाता तोड़ दिया।
पक्षियों के कलरव अब बंद हो गए,
उनके सभी घोसले खंड खंड हो गए।
अब ना कोई मेरे नीचे गुनगुनाता है,
ना ही कोई समूह ठहाका लगाता है।
भाग्य ही मुझसे गया है रूठ,
क्योंकि मैं अब हो गया हूं ठूंठ।।
– अजय तिवारी ” शिवदान “
Waaaaaaaaaaaaahhhhh….
Very nice…poem