“दिन बचपन के”
*याद* आते हैं अक्सर
वो नादानियां
वो शैतानियां बचपने की
वो गिरना-पड़ना
उस पर भी
खिलखिलाना कहकहे लगाना
वो रूठना मनाना
किसम-किसम के
मुंह बनाना
भोलेपन की वो बातें
जिनमें से कई के
कोई मतलब न होते
सिर्फ हंसी ही निकलती
देखने-सुनने वाले की
उड़ गए हैं
वो सारे दिन
परिंदों की मानिंद
हाथों से छूटकर
कभी न लौटकर
आने को
दिन फुरसत के हों
या उदास पल
नादान दिल
उन्हीं लम्हों को
याद करता है
खयालों में सही
जी लेता हूं मैं
सुकून का एक
नन्हा सा पल ही सही
पर
वो अहसास
असीम आनंद
और तृप्ति देकर
मुझे जिजिविषा से
भर देता है।
श्याम कुमार राई ‘सलुवावाला’
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