नेताजी सुभाष और ‘गोमो’ रेलवे स्टेशन

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के इतिहास में ‘महात्मा गाँधी’ के बाद अगर किसी अन्य भारतीय व्यक्तित्व को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष सम्मान प्राप्त है, तो वह एकमात्र व्यक्तित्व ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस’ का ही है। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने जिस अद्भुत शौर्य, पराक्रम और बुद्धिमता का परिचय दिया था, वह अपने आप में अद्भुत है, जिसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभिवादन किया गया है।

अपने वीरपुत्र ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ के अद्भुत पराक्रम को सम्मानित करते हुए राष्ट्र उनकी जयंती ‘23 जनवरी’ को 2021 से प्रतिवर्ष “पराक्रम दिवस” के रूप में सादर पूर्वक पालन करते रहा है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए गाँधी जी के अहिंसात्मक सिद्धांतों के विपरीत सशस्त्र संघर्ष छेड़ने और उसके अनुरूप ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन करने जैसे वृहद राष्ट्रहित लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपनी मातृभूमि को तजने जैसे कारुणिक डंस को भी आत्मसात् करना पड़ा था।

उन्होंने अपने वृहद स्वतंत्र भारत का एक विराट स्वप्न अपने मन-मस्तिष्क में संजो रखा था, जिसमें उन्हें आंशिक रूप से सफलता भी प्राप्त हुई थी, परंतु पूर्ण रूपेण वह एक दिवास्वप्न मात्र बनकर ही रह गया। उन्होंने तत्कालीन पूर्वोत्तर भारतीय अंचल में स्वतंत्र ‘आजाद हिन्द सरकार’ का स्वतंत्र झण्डा तो फहरा ही दिया था और उसके वे प्रथम प्रधान मंत्री भी बने थे, लेकिन दुर्भाग्यवश वह ‘आजाद हिन्द सरकार’ अल्पकालिक ही अपने अस्तित्व में रह पाया था। अगर वह स्वतंत्र सरकार दीर्घकालिक रह गया होता, तो आज हमारे भारत का भौगोलिक नक्शा कुछ और ही रहता।

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तो, अब 17-18 जनवरी 1941 की ‘उस महानिष्क्रमण यात्रा’ संबंधित कुछ बातों को इतिहास के धुंधले झरोखे से देखने की कोशिश करते हैं। ‘होलवेल स्मारक’ जिसे जी. होलवेल ने 1760 में अपने कलकत्ता गवर्नरशिप के छोटे कार्यकाल के दौरान काल्पनिक ‘ब्लैक होल’ में मारे गए अंग्रेज लोगों की स्मृति में बनवाया था, उसे हटाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सरकार को आल्टीमेटम देते हुए ‘होलवेल आंदोलन’ शुरू कर दिया था।

2 जुलाई 1940 को इस आंदोलन के कारण बेवजह से ही उन्हें ‘भारतीय रक्षा अधिनियम’ की धारा 129 के तहत तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जॉन ब्रीन ने गिरफ्तार कर प्रेसीडेंसी जेल में भेज दिया। अकारण गिरफ्तारी से क्षुब्ध नेताजी ने जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया, जिससे उनकी तबीयत दिन पर दिन बिगड़ने लगी थी।

ऐसे अंग्रेजों ने 5 दिसंबर 1940 को उन्हें जेल से रिहा कर कलकत्ता के एल्गिन रोड में स्थित उनके निवास पर भेजकर उन्हें नजरबंद कर दिया था। योजना थी कि जब उनका स्वस्थ्य ठीक हो जाएगा, तो उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया जाएगा। 27 जनवरी 1941 को उन्हें कानूनन सजा होने वाली थी।

लेकिन ‘कानूनन सजा’ की जानकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिल गई थी। फिर उन्होंने ‘बंगाल वालन्टियर्स कोर भारत’ के एक भूमिगत क्रांतिकारी नेता सत्य रंजन बक्शी से सलाह कर अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर कलकत्ता से विदेश भाग जाने की एक वृहद योजना बना ली, जिसकी खबर उनके परिजन को भी न लग पाई थी। अपनी उस योजना से उन्होंने केवल अपने बीस वर्षीय प्रिय भतीजा शिशिर बोस को निश्चित तिथि के दिन ही अवगत कराया था।

सुभाष चन्द्र बोस ने अपने परिजन के साथ 16 जनवरी की रात को आखरी सामूहिक भोजन किया था। फिर सभी के सो जाने के बाद उसी रात 1 बजकर 35 मिनट के आसपास उन्होंने एक पठान मुसलमान ‘मोहम्मद ज़ियाउद्दीन’ के भेष में पूरी तैयारी के साथ अपने घर से निकले। वे अपनी ‘वांडरर कार बीएलए 7169’ की पिछली सीट पर जा बैठे। उनका प्रिय भतीजा शिशिर ने कार का इंजन स्टार्ट किया। सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती को जान बूझकर पूर्व की भांति जलती ही छोड़ दी गई थी।नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपनी ऐतिहासिक ‘महानिष्क्रमण यात्रा’ के दौरान 17 जनवरी को सबेरे 8 बजे ‘गोमो’ के लोको बाजार में रहने वाले अपने वकील मित्र शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के घर पहुँचे। वहीं पर उनकी गुप्त मुलाकात स्वतंत्रता सेनानी अलीजान और वकील चिरंजीव बाबू से भी हुई थी।

उन्होंने पेशावर जाने की अपनी योजना शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के साथ साझा की। निर्णय लिया गया कि नेताजी अपने ‘पठान मुसलमान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन’ की ही वेश-भूषा में ‘गोमो’ स्टेशन से ‘63 अप हावड़ा-पेशावर एक्सप्रेस’ में सवार होंगे। बाद में हावड़ा-पेशावर एक्सप्रेस को ‘कालका एक्सप्रेस’ के नाम से जाना जाने लगा। 2021 में भारतीय रेलवे ने नेताजी के सम्मान में इस ट्रेन का नाम बदलकर ‘नेताजी एक्सप्रेस’ कर दिया है। शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के कहने पर ‘गोमो’ के अमीन दर्जी ने झटपट कुछ ही घंटों में नेताजी के लिए कुछ अन्य पठानी कपड़े तैयार कर दिया था।

17 जनवरी की लगभग कोहरे और ठंड से ठिठुरती अर्धरात्रि में, अर्थात 18 जनवरी की प्रथम प्रहर में ‘गोमो’ रेलवे स्टेशन पर उद्घोषणा हुई कि ‘कलकत्ता से आने वाली पेशावर गामी ‘63 अप हावड़ा-पेशावर एक्सप्रेस’ कुछ ही समय में प्लेटफार्म संख्या 2 पर आ रही है’। ‘गोमो’ स्टेशन की छोटी-सी वैटिंग रूम में से पठानी मुसलमानी कपड़े पहने और उस पर एक पुराना कंबल को ओढ़े ‘अनंत पथ का पथिक’ देश की ‘आजादी के अन्वेषक’ और हम सबके प्रिय ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ मोहम्मद जियाउद्दीन की वेशभूषा में अपनी जगह से उठे।netaji Subhas-Chandra-Bose साथ में ही बीस वर्षीय उनका तरुण भतीजा शिशिर भी उठा। तुरंत ही किनारे में खड़ा उनींदी कुली पास आया और साहब का बड़ा बक्सा अपने माथे पर उठाए आगे बढ़ा। उसके पीछे-पीछे बड़े साहब और उनके पीछे-पीछे तरुण शिशिर भी बढ़ा। कुछ दूर साथ चलने पर बड़े साहब ने कुछ इशारा किया, तरुण शिशिर वहीं रुक गया। भर नेत्रों से उन्हें जाते देखा। शायद यही उनकी आखरी मुलाकात होने वाली थी। शिशिर ने माथे पर सामान लिए कुली को और उसके पीछे अपने आत्मीय महान व्यक्तित्व ‘रांगाबाबू’ अर्थात ‘नेताजी’ को ‘गोमो’ रेलवे स्टेशन के ओवर ब्रिज की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए आखरी बार ही देखा।

दोनों कुछ पल सीढ़ी की पीली बत्ती में दिखाई देते रहें, फिर कोहरे में धीरे-धीरे गुम हो गए। तरुण शिशिर अभी भी अपनी ही जगह पर बुत बना खड़ा था। थोड़ी देर में ही ‘हावड़ा-पेशावर एक्सप्रेस’ की दूर से सिटी सुनाई पड़ी। फिर क्रमशः करीब आती उसकी दहाड़ सुनाई पड़ी। थोड़ी देर में ही पुनः उसकी सीटी और फिर वही तेज दहाड़, लेकिन क्रमशः कुछ क्षीण होती हुई वह दूर कहीं खो गई।

तरुण शिशिर कुछ देर तक तो उसी दिशा में अपनी नजरें गड़ाए कोहरे में भी कुछ देखने की कोशिश करता रहा, जिस ओर ‘हावड़ा-पेशावर एक्सप्रेस’ गई थी। लेकिन अब कहीं कुछ न दिख रहा था। कभी-कभी दूर बहुत दूर से मद्धिम सीटी सुनाई पड़ जा रही थी। अब शायद उसे कुछ चेतना लौट आयी। वह अपने जगह से मुड़ा और अपनी ‘जर्मन वाँडरर कार’ की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा। अगले ही पल अर्धरात्रि के सन्नाटे में कार घरघरा उठी। फिर पलक झपकते ही वह कलकतागामी सड़क पर सरपट दौड़ने लगी। ताकि जल्दी ही वह कलकता के एल्गिन रोड वाले अपने निवास पर पहुँच जाए और घर के उस विशेष कमरे में रोज की नियमित क्रिया-कलापों को संपादित करता रहें।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी ऐतिहासिक ‘महानिष्क्रमण यात्रा’ के पूर्व का दिन और रात्रि का कुछ हिस्सा ‘गोमो’ में ही बिताई थी। फलतः आज भी ‘गोमो’ रेलवे स्टेशन कोयलांचल वासियों के लिए गर्व का विषय बना हुआ है। नेताजी की यादों से जुड़े होने के कारण ही रेलवे मंत्रालय ने 23 जनवरी, 2001 को ‘गोमो’ रेलवे स्टेशन का नाम ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो स्टेशन’ कर दिया।netaji Subhash-chandra-bose

बाद में 2021 में ‘कालका मेल’ का भी नाम ‘नेताजी एक्सप्रेस’ के रूप में कर अपने महान पराक्रमी ‘नेताजी’ के प्रति राष्ट्र अपनी कृतज्ञता प्रगट की है। वर्तमान में ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो स्टेशन’ के प्लेटफार्म संख्या 2 के बीच में स्थापित ‘नेताजी’ की मूर्ति उनकी ऐतिहासिक ‘महानिष्क्रमण यात्रा’ की याद दिलाती है, जो इसी रेलवे स्टेशन से प्रारंभ हुई थी। उसकी याद में प्रतिवर्ष 18 जनवरी को ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो रेलवे स्टेशन’ पर ‘महानिष्क्रमण दिवस’ मनाया जाता है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ‘हावड़ा-पेशावर एक्सप्रेस’ से 19 जनवरी की शाम तक पेशावर के ‘केंटोनमेंट स्टेशन’ पहुँचे थे। वहाँ मियाँ अकबर शाह (‘नेताजीज ग्रेट एस्केप’ के लेखक) मिले। दोनों ‘होटल ताजमहल’ पहुँचे। पर अगले दिन ही कुछ भाँपकर मियाँ अकबर शाह ने उन्हें होटल से ले जाकर अपने एक साथी आबाद ख़ाँ के घर पर व्यवस्थित कर दिया था। वहाँ पर अगले कुछ दिनों तक ‘नेताजी’ एक बहरे और गूंगे पठान जियाउद्दीन के वेष में रहे, क्योंकि उन्हें स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे।

मियाँ अकबर शाह के पूर्व योजना के अनुरूप फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के मोहम्मद शाह, रहमत ख़ाँ और भगतराम तलवार नेताजी सुभाष चंद्र बोस को साथ में लिये 26 जनवरी, 1941 को एक कार से दोपहर तक तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा को पार कर गए। फिर उन्होंने कार को छोड़ कर पश्चिमोत्तर सीमांत के ऊबड़-खाबड़ कबायली इलाके में पैदल ही बढ़ते हुए 27-28 जनवरी की आधी रात को अफग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँच गए।

वहाँ से बहुत मुश्किल से वे लोग 31 जनवरी 1941 की सुबह काबुल में पहुँचे थे। वहाँ से ‘नेताजी’ ने स्वयं जर्मन दूतावास से संपर्क किया। इस बीच एक अफग़ान पुलिस वाले को उन पर कुछ शक हो गया था, जिसे पहले कुछ रुपये और बाद में ‘नेताजी’ की सोने की घड़ी को देकर उससे पीछा छुड़ाया। 22 फरवरी, 1941 को ‘नेताजी’ ने इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मुलाक़ात की ।

तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ एक कार से समरकंद और फिर ट्रेन से मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे। 9 अप्रेल, 1941 को उन्होंने जर्मन सरकार को अपना एक ‘मेमोरंडम’ सौंपा, जिसमें एक्सिस पॉवर और भारत के बीच परस्पर सहयोग को दर्शाया गया था। इसी वर्ष उन्होंने जर्मन सरकार के सहयोग से ‘स्वतंत्र भारत केंद्र’ और ‘स्वतंत्र भारत रेडिओ’ की स्थापना की थी।

21 अक्टूबर, 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘आज़ाद हिंद फौज’ के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से ‘स्वतंत्र भारत’ की अस्थायी सरकार बनाई, जिसे जर्मनी, जापान, फ़िलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशो की सरकारों ने मान्यता प्रदान की थी। फिर जापान सरकार के सहयोग से अंडमान और निकोबार में ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की, जिनका नाम ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ रखा गया है। परंतु 1945 में अमेरिका द्वारा परमाणु हमले के बाद जर्मनी ने अपने हथियार डाल दिए। इसके कुछ दिन बाद ही 18 अगस्त, 1945 को नेताजी की एक हवाई दुर्घटना में मारे जाने की खबर चतुर्दिक फैल गई । हालाकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज तक रहस्य ही बनी हुई है।

नई दिल्ली के ‘इण्डिया गेट’ के ‘अमर जवान ज्योति’ स्मारक के पास ही वीर भारत-पुत्र ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ की स्थापित भव्य मूर्ति राष्ट्र सहित अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘नेताजी’ के महत्व को अनंतकाल तक प्रसारित करती ही रहेगी।
(नेताजी जयंती, 23 जनवरी, 2024)

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 1
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com

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