मातृ दिवस विशेष : ‘माता गुरुतरा भूमे:’

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। ‘माता गुरुतरा भूमे:’ अर्थात ‘माता भूमि से भी अधिक भारी होती है।’- यह उत्तर धर्मराज युद्धिष्ठिर ने महाभारत के वनपर्व में यक्ष को दिया था। ‘माता’ भूमि से भी भारी! आखिर क्यों? क्योंकि उसके चरणों में ही तो स्वर्ग से भी बढ़कर सुख-शांति की प्राप्ति हो सकती है। और ‘स्वर्ग’ क्या है? हो सकता है कि यह एकमात्र मानवीय परिकल्पिना हो। पर इस धरती पर उस स्वर्ग के यथार्थ स्वरूप का अनुभव और दर्शन हमें ‘माँ’ के ममतामयी आँचल में ही हो जाते हैं। जहाँ सर्वदा प्रेम, सुख, कोमलता और आर्द्रता का आभास होते रहता है। वेदों से लेकर प्रायः सभी भाषाओं के सद्ग्रंथों में तो ऐसा ही कहा गया है। ‘माँ’-‘माई’-‘मदर’ जैसे अक्षर को संपूर्ण सृष्टि के बराबर माना गया है। शायद इसीलिए विश्वभर में सभी भाषाओं में ‘माता’ का सम्बोधन ‘म’ अक्षर से ही प्रारंभ होता है। यहाँ तक कि अन्य कई जानवरों में ‘माँ’ का सम्बोधन ‘म’-‘माँ’ जैसे ध्वनियों से ही होता है।

माता के आँचल की शीतलता की बराबरी कोई अन्य भौतिक छाँव नहीं कर सकता है और न ही उसके समान कोई दूसरा सहारा ही हो सकता है। उसके समान न तो कोई रक्षक और न ही कोई पालक ही हो सकता है। माँ का कोमल आँचल और वात्सल्य गोद में ‘संजीवनी’ अमृत शक्ति का वायस रहता है। फलतः कर्म और त्याग की दृष्टि से इस धरती की बराबरी केवल और केवल माँ ही कर सकती है। ‘रामायण’ में श्रीराम जी अपने श्रीमुख से ही ‘माँ’ की प्रशंसा करते हुए उसे स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं –
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’
अर्थात, ‘जननी (माता) और जन्मभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।’ कोई भी देश हो, कोई भी धर्म या जाति हो, कोई भी संस्कृति या सभ्यता हो, कोई भी भाषा अथवा बोली हो, सर्वत्र ही ‘माँ’ के प्रति अटूट, अगाध और अपार प्रेम-सम्मान को ही दर्शाता है।

‘महाभारत’ के ग्रंथाकार त्रिकालदर्शी महर्षि वेदव्यास ने भी ‘माँ’ के संबंध में कहा है –
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिय।।’
अर्थात, माता के समान न कोई छाया है और न माता के समान कोई गति या सहारा ही है। माता के समान न तो कोई रक्षक है और न माता के समान कोई प्रिय वस्तु ही हो सकती है।

इसी तरह से यजुर्वेद के ‘तैतरीय उपनिषद’ में ‘माँ’ के संबंध में कहा गया है-
‘मातृ देवो भवः।’
अर्थात, माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।
‘माँ’ शब्द अपने आप में विराट है। इसमें सारा का सारा ब्रह्मांड ही समाया हुआ है। जिसका न आदि है, न अंत ही है। वह तो एक अमोघ शक्ति मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही बड़ी से बड़ी मानसिक और शारीरिक पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘माँ’ शब्द का निर्माण ‘मै’ अर्थात परमशक्ति और ‘आ’ अर्थात आत्मा हुआ माना जाता है। इस तरह ‘माँ’ ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है, जिसके गर्भ के सहारे परमेश्वर अपने अंश द्वारा अपनी शक्ति का संचार और विस्तार करते हैं।

‘माँ’ शब्द का सम्बोधन सुनते ही किसी भी नारी के मन में व्याप्त कठोरता दूर हो जाती है और कोमलता अपना स्थान बना लेती है। माँ, तमाम शारीरिक और मानसिक कष्टों को आत्मसात कर नौ महीने तक अपने अजन्मा शिशु भ्रूण को अपने गर्भ में पोषण देती है। अपने रक्त को पिला-पिला कर उसमें प्राण का संचार करती है। फिर मृत्यु के समकक्ष अर्थ को आभाषित करती अथाह प्रसव-पीड़ा को झेल कर उसे जन्म देती है। और तब वह अपने जीवन को धन्य मानती है। विविध मौसम में भी रात-रात भर बच्चे के लिए जागती, खुद गीले में रहकर उसको सूखे में रखती, स्वयं भूखे रहकर अपने शिशु को अपने रक्त से निर्मित सुधामृत पान कराती, उसे हमेशा अपनी ममता की शीतल छाँव में छुपाये रखती, उसकी जिद के आगे अपने सारे स्वाभिमान और गुरुता को त्यागकर सर्वदा झुक-सी जाती है। फिर उसकी अँगुली पकड़कर उसे चलना सिखाती है। प्यार से कभी डाँटती और कभी दुलारती है। दूध-दही-मक्खन बड़े ही लाड़-प्यार से खिलाती व पिलाती है। उसकी रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौतियों का डटकर सामना करती है और कभी-कभी बच्चे के रक्षार्थ अपने प्राण तक को न्योछावर कर देती है। ये सभी उदात्त गुण कोमलांगिनी, ममतामयी व वत्सल्यता केवल और केवल ‘माँ’ के ही अद्भुत अलंकार हो सकते हैं।

माता का हृदय फूलों की पंखुड़ियों से भी अधिक कोमल, यज्ञ के पवित्र धूँए से भी अधिक पावन और कर्तव्यपरायणता में बज्र से भी अधिक कठोर हुआ करता है। माता का हृदय ही शिशु जीवन का विराट आँगन होता है, जिसमें वह निरंतर अठखेलियाँ करते हुए बड़ा होते रहता है। कहा भी गया है कि शिशु का भाग्य सदैव उसकी जननी द्वारा ही निर्मित होता है। वही उसका प्रथम गुरु हुआ करती है। इसीलिए ‘सामवेद’ में एक मंत्र के द्वारा कहा गया है, जिसका अभिप्राय है, – ‘हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, शुद्ध मन और शुद्ध कर्म से माता के आनन को हर्षित कर।’

हमारे वेद, पुराण, दर्शन-शास्त्र, स्मृतियाँ, महाकाव्य, उपनिषद आदि भी ‘माँ’ की अपार महिमा का गुणगान करते न थकते हैं। असंख्य ऋषि-मुनियों, पंडित-विद्वानों, तपस्वी-महात्माओं, दर्शनशास्त्री-साहित्यकारों आदि भी ‘माँ’ के प्रति अपनी प्रेम अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते नहीं थकते हैं। पर यह भी सत्य है कि इन सबके बावजूद भी ‘माँ’ शब्द के महात्म्य तथा इसकी परिभाषा को आज तक कोई भी पूर्णरूपेण व्यक्त कर पाने में सक्षम नहीं हुआ है। ‘माँ’ का केवल एक ही रूप हो सकता है और वह रूप है ‘माँ’ का। इसके अतिरिक्त अन्य कोई रूप या परिचय हो ही नहीं सकता है, फिर चाहे वह किसी की भी ‘माँ’ क्यों न हो!

‘पद्मपुराण’ में उल्लेखित एक कथा के अनुसार एक बार अयोध्यापति श्रीरामचन्द्र जी लंकेश महाराज विभीषण जी के आमंत्रण पर अपने अनुज श्रीलक्ष्मण और श्रीभरत तथा अपने मित्र सुग्रीव सहित लंकापुरी पहुँचे। लंकाधिपति सम्राट विभीषण जी ने अपने मंत्रिमंडल सहित अपने विशिष्ट पूजनीय अतिथि अयोध्यापति श्रीराम सहित उनके दल का लंका के राजभवन में भव्य हार्दिक स्वागत किया। उनके स्वागत में राजभवन को किसी दिव्य मंदिर की तरह सजाय गया। चतुर्दिक ‘राजाराम की जय’ की मधुर ध्वनि गुंजित हो रही थी। श्रीराम जी के आदर्शों को मान कर लंकेश विभीषण जी के शासन-प्रबंध में ‘रामराज्य’ की परिकल्पना साकार हो रही थी। लंकापुरी के निवासियों के रहन-सहन, क्रिया-कलापों तथा धार्मिक कृत्यों को देख कर प्रतीत ही नहीं हो रहा था, कि यह लंका काभी असुरपुर भी रही है। सर्वत्र ही सुख-शांति का वातावरण था। साधु और सज्जनों द्वारा चतुर्दिक धार्मिक कार्य सम्पन्न हो रहे थे। श्रीराम तथा उनके अनुजों के दर्शन को पाने के लिए लंका निवासियों में व्यग्रता तो थी ही, पर कहीं उच्छृंखलता नहीं, बल्कि सर्वत्र आत्मसंयम दिखाई दे रहा था।

अगले ही दिन लंका के अनेक निवासी अपने राजा विभीषण जी के पास आए और उनसे सादर निवेदन किये, – ‘हमें भी श्रीराम जी और उनके अनुजों का एक पल के लिए भी दर्शन करवा दीजिए।’

यह सुनकर श्रीराम भक्त विभीषण का हृदय गदगद हो गया। एक पल भी बिना गँवाए उन्होंने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम जी की सहमति को प्राप्त किया और फिर उनकी आज्ञा के अनुरूप नगरवासियों को अपने साथ लिये उनके पास पहुँचे। लंका निवासियों की अभिलाषा को व्यक्त करते हुए उन सबका प्रभु श्रीराम से परिचय करवाया। श्रीराम जी के दर्शन को प्राप्त कर सभी नगरवासी धन्य हो गए। श्रीराम जी की आज्ञा से श्रीभरत जी तथा श्रीलक्ष्मण जी ने भी उन सबसे भेंट की और उनके द्वारा प्रदत्त उपहारों को सादर ग्रहण कर उन्हें भी यथायोग्य उपहार देते हुए एक-एक कर सबको सादर विदा किया।

लंका के राजभवन में तीन दिनों तक श्रीराम जी ने अपने अनुजों तथा मित्र सुग्रीव सहित निवास किया और उन स्थलों का सादर भ्रमण किया, जिनका संबंध उनकी भार्या सीता जी के साथ क्षणिक भी रहा था। चौथे दिन लंका की राजमाता कैकसी ने अपने पुत्र लंकापति विभीषण को बुलाया और आग्रह किया, – ‘मैं भी अपनी बहुओं के साथ चलकर पुरुषोत्तम श्रीराम जी का सानुज दर्शन करना चाहती हूँ। तुम उनसे अनुग्रहपूर्वक आज्ञा ले लो। तुम्हारा बड़ा भाई दसशीश रावण उनके वास्तविक श्रीविष्णु स्वरूप को नहीं पहचान पाया था और उसने उनसे जबरन ही बैर ठान लिया था। तुम्हारे पिता जी ने मुझे बहुत पहले ही अवगत करवा दिया था कि भगवान श्रीविष्णु रघुकुल में राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम के रूप में अवतार लेंगे और वे ही हमारे कुल में जन्में अंहकारी दशग्रीव रावण का विनाश करेंगे। और वैसा ही हुआ भी।’

विभीषण जी ने अपनी माता से सादर कहा – ‘माते! आप मेरे प्रभु श्रीराम जी का दर्शन अपनी बहुओं के साथ अवश्य ही कीजिए। पर थोड़ी देर के लिए प्रतीक्षा कीजिए। मैं आपकी आज्ञा के अनुरूप तुरंत ही अतिथि प्रभु श्रीराम जी को सूचित करता हूँ कि लंका की राजमाता कैकसी अपनी बहुओं के साथ उनके दर्शन की अभिलाषी हैं। मैं तुरंत ही उनकी आज्ञा ले कर आता हूँ।’

लंकेश विभीषण जी अपने प्रभु श्रीराम जी के पास पहुँचे और शीश नवाँ कर बैठ गए। श्रीराम जी का दर्शन करने आए जब सभी लोग एक-एक कर सादर विदा हो गए। तब अवसर पाकर महाराज विभीषण जी ने प्रभु श्रीराम जी के सम्मुख करबद्ध शीश झुका कर निवेदन किया, – ‘प्रभु! आपसे एक सादर निवेदन करना चाहता हूँ। मेरे दिवंगत भ्राता रावण तथा कुंभकरण को और मुझे जन्म देने वाली माता कैकसी अपनी बहुओं सहित यहाँ आकर आपके दर्शन की अभिलाषा रखती है और आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही हैं। आप मेरी माता जी को एक बार अवश्य ही दर्शन देने की आज्ञा प्रदान कीजिए।

विनीत मित्र विभीषण जी की इस विनती को सुनते ही श्रीराम व्यग्र हो उठे और कहे,- ‘मित्र लंकापति! आपकी माता, क्या मेरी भी माता न हुई? मेरे दर्शन हेतु माताश्री का यहाँ आना पड़े ! यह तो आर्य मर्याद के प्रतिकूल होगा। यह तो मेरी भूल है, कि अब तक मैं माताश्री के दर्शन के लिए उद्धत न हुआ। मैं माताश्री के दर्शन करने की इच्छा से स्वयं ही अविलम्ब उनके पास चलूँगा। लंकापति! आप शीघ्र ही मेरे पथ-प्रदर्शक बनकर माताश्री के पास हमें ले चलें।’

और श्रीराम जी अपने अनुजों समेत झट से चल पड़े। रनिवास में माता कैकसी के सम्मुख पहुँच कर उन्होंने घुटनों के बल बैठकर अपने दोनों हाथों को उनके सामने जोड़ लिये। राजमाता कैकसी को उन्होंने अपनी माता कौसल्या के रूप में देखा। फिर उनके चरणों को अपने दोनों हाथों से सादर स्पर्श किया। उन चरणों पर अपने शीश को रखते हुए उन्हें सादर प्रणाम किया और विनीत स्वर में कहा,- ‘माता! मैं कौशल्या और स्वर्गीय दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुजों सहित आपको प्रणाम करता हूँ। मैं विलम्ब से आपके दर्शन के लिए उपस्थित हुआ हूँ, इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। आप मेरे मित्र लंकापति विभीषण जी की माता होने के नाते धर्मतः मेरी भी माता ही हैं। जैसे कौशल्या मेरी माता हैं, उसी प्रकार आप भी मेरी माता हैं।’

राजमाता कैकसी विगत घटनाओं को स्मरण कर तो अपने मन में रावणारि श्रीराम जी से स्वयं के प्रति ऐसे विशेष आदर-सम्मान की नहीं, बल्कि तिरस्कार की ही कल्पना कर रखी थी। पर आशा के विपरीत श्रीराम-भाव को देख और सुनकर आत्म प्रसन्नता से उसका गला अवरुद्ध हो गया। वह कंपित स्वर में बोली,- ‘वत्स श्रीराम! तुम धन्य हो! तुम्हें जन्म देने वाली माता कौशल्या धन्य हैं। तुमने अपने प्रबल शत्रु की माता को, मुझ अभागिन को अपनी ‘माता’ कौशल्या के समकक्ष बता कर मुझे ‘सुगति’ का भागी बना दिया। सचमुच तुम ‘दीन दयाल बिरिदु संभारी’ हो। सर्वत्र तुम्हारी जय हो। तुम चिरकाल वंदनीय रहो। वत्स! तुम्हें अमर यश की प्राप्त हो।’

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

तत्पश्चात श्रीरामनुजों ने भी अपने पूजनीय भ्राता श्रीराम जी का अनुसरण करते हुए माता कैकसी के चरणों को स्पर्श कर उन्हें सादर प्रणाम किया। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी ने अपने प्रबल शत्रु दिवंगत रावण की माता कैकसी को ही नहीं, बल्कि जगत की सभी ‘माता’ को आदर-सम्मान देकर लोक व्यवहार हेतु एक आदर्श को ही स्थापित किया है, जिसका अनुकरण करना सब पुत्रों का सर्वकालिक कर्तव्य है। तभी हम श्रीराम के अनुयायी कहलाने का गर्व महसूस कर सकते हैं।

तात्पर्य यह है कि माता के चरण स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं। इस महा महिमामयी ‘माता’ की सेवा ही समस्त सुफल को प्रदान करता है। पर दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान भौतिक सुख के सम्मुख हम सभी मातृ-पितृ सेवा जैसी अपनी पावन संस्कृति और मर्यादा को ही भूलते जा रहे हैं और अपनी कमी को छुपाने के लिए आधुनिकता को दोष दे रहे हैं। यही कारण है कि देश भर में वृद्धाश्रमों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। जबकि प्रभु श्रीराम जी ने तो अपने अनुचरों को मातृ-पितृ की नित्य सेवा के लिए प्रेरित किया है –
‘सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी।।’
(मातृ दिवस विशेष)

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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