किडनी (लघुकथा) : हीरा लाल मिश्र

दोनों फल-विक्रेता शेख अख्तर और मोहन सिंह अपने-अपने ठेलों पर तरह-तरह के फल लादकर बस स्टैण्ड के पास आ जाते। उनमें सलाम-नमस्ते होती और वे ग्रहाकों से निबटने लगते । दोनों में किसी प्रकार की व्यापारिक रस्साकशी न थी। फुरसत के समय दोनों अपना सुख-दुख बतियाते पर उनका अधिकांश समय अपने बेटियों की पढा़ई-लिखाई पर बीतता । दोनों की बेटियाँ शकीना और दमयन्ती हमउम्र थीं । उनकी पढा़ई के विषय में दोनों ही चिन्तित रहते।

एक ही स्कूल में पढ़ने वाली शकीना और दमयन्ती में बड़ा लगाव था । इधर ये दोनों टिफिन बाक्स के खाद्य-पदार्थों को अदला-बदली करतीं तो उधर अख्तर और मोहन सिंह भी एक दूसरे के जलपान के कुछ अंश अदल-बदल कर खाते । उनमें न तो कोई व्यापारिक भेदभाव था न, धार्मिक। समयानुसार दोनों की बेटियों ने एम.ए.पास किया तथा शहर के स्कूल में दोनों ही टीचर बनी। दोनों के रिश्तेदार कानाफूसी करते पर उन्हें इसकी फिक्र न थी। धर्म-मजहब कभी भी इन परिवारों के आड़े न आया।

‘अख्तर भाई, आज तुम खुश नजर नहीं आ रहे हो। क्या बात है ? ‘ – मोहन सिंह ने पूछा । ‘ मुसीबत टूट पड़ी है भैय्या । ‘ – अख्तर ने गमगीन आवाज में कहा ।
‘ कौन सी मुसीबत ? हमें भी तो बताओ। ‘ – मोहन सिंह ने पूछा । ‘भाई, शकीना की एक किडनी खराब हो गई है । डाक्टर ने कहा बदलना होगा नहीं तो जान को खतरा है । मोहन सिंह के मुँह पर विषाद की रेखा खिंच गई । अख्तर के परिवार का कोई भी सदस्य शकीना को किडनी देने के लिए तैयार न हुआ।

‘ पापा अगर खून मिल जाये तो मैं शकीना को अपनी एक किडनी देना चाहती हूँ । ‘ दमयन्ती ने कहा ।
माँ कमरे से निकलकर बोली – ‘ क्या यह ठीक रहेगा ? ‘
दमयन्ती ने माता-पिता को समझाया और राजी किया ।
उसने अपनी एक किडनी देकर शकीना को जीवन दान दिया । शकीना और दमयन्ती पहले इंसान थीं, बाद में हिन्दू या मुसलमान।

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