“कनिया” (भोजपुरी कविता) : हृषीकेश चतुर्वेदी

“कनिया”

झाँकि के झरोखा से पुरुआ झरकि आवे,
बाँस-बँसवारी चोंइ-चोंइ चीखे चौंकि के।
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अंगना में बाढ़नि से बार-बार झारे पात,
झांग ले दुआरे पर खाढ़ माथ तोपि के।
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दोसर-तिसर केकर मुंह जोहे राहे-राहे,
खंचिया में पतई उठावे अलोपि के।
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कनिया गवनहरी के सोभा का बरनी,
करिखा आ काजर के छांटत मुंह तोपि के।
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काँट-कूस धांगत उड़ावत आकासे धूरि,
पछुआ के छांटत बधारी बढ़े धोपि के।
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बोझा सोरहिया के ढोइ-ढोइ थाकल-माँदल,
लरिका खेलावे अंचरवा से तोपि के,
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“ऋषि” हम कतना ले सूरत बखान करीं,
सूनर-सोहाग सरिहारत रहे छूपि के।
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✒️..हृषीकेश चतुर्वेदी

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