मैं बिहार हूँ

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। मैं, देवनदी गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, महानदी, सोन, ब्रह्मपुत्र के पवित्र जल से सिंचित, श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा देवों को भी अत्यंत प्रिय पावन भूमि ‘भारत’ देश का एक प्रमुख राज्य ‘बिहार’ हूँ। मैं, पितरों के मोक्ष की पावन भूमि (गयाधाम), समुद्र-मंथन के साक्षी (मंदार पर्वत), रावण के दंभ को चूर करने वाले भगवान भोलेनाथ का पवित्र स्थान ‘बैद्यनाथ धाम’ (देवघर), पौराणिक धरोहर ‘देव’ सूर्यमंदिर (औरंगाबाद), उलार सूर्य मंदिर (पालीगंज, पटना), मुण्डेश्वरी भवानी मंदिर, (कैमूर), राजा हरिश्चंद्र पुत्र रोहिताश्व का ‘रोहतास दुर्ग’ भूमिजा सीता की उद्भव-स्थली (सीतामढ़ी) और महर्षि वाल्मीकि की तप की भूमि पावन बिहार हूँ। मेरा प्राचीन इतिहास वेदों की ऋचाओं को सुनकर, जनक नंदिनी सीता के स्वयंवर के मंगल गीतों को श्रवण कर, राजगृह के अखाड़े में जरासंघ और महाबली भीमसेन के मलयुद्ध को श्रीकृष्ण की आँखों से देख कर, महावीर स्वामी द्वारा प्रतिष्ठित ‘पंचशील सिद्धांतों’ को अपनाकर, सुजाता के मधुर खीर से ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध के साथ आगे बढ़ता है। मैं नालंदा, विक्रमशील, उदंतगिरि, वज्रासन (मगध) जैसे विश्व प्रसिद्ध प्राचीन शिक्षा-केंद्रों द्वारा प्रदत ज्ञान-राशि से अभिभूत होकर, विद्व आचार्य चाणक्य की नीति को धारण कर, बाणभट्ट के दिव्य ज्ञान और तेज से दमक कर, ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट की गिनती का सहारा लिये सम्राट आजात शत्रु, महापद्मानन्द, चन्द्रगुप्त, अशोक, समुद्रगुप्त, धर्मपाल आदि द्वारा पालित-पोषित और विश्व को प्रथम गणराज्य स्वरूप वैशाली को प्रदान कर वर्तमान भारत सहित विश्व के नव-निर्माण व शासन-प्रबंध का विशेष संचालक बने विद्वजनों के द्वारा विशेष रूप में समादृत बिहार हूँ।

पौराणिक और ऐतिहासिक पन्नों में मेरा उल्लेख विशेष रूप से हुआ है। श्रीराम की अर्धांगिनी माता सीता का जन्म मेरे ही मिथिला राज्य में हुआ था, जिसे आज ‘सीतामढी़’ के नाम से जाना जाता है। महाराज जनक का राज्य मेरे वर्तमान के उत्तर-मध्य के मुजफ्परपुर, सीतामढी, समस्तीपुर, मधुबनी आदि जिलों तक विस्तृत था। चौदह वर्ष के वनवास से लौटने के उपरांत श्रीराम के राजा बनने के बाद जब सीता माता पर शंका उत्पन्न के कारण उन्हें वनवास मिला, तो मैं ही दुखयारी माता सीता को वर्तमान गंडक नदी के किनारे के अपने वनक्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रश्रय प्रदान कर उनकी सेवा-सुश्रूषा किया था, जिसे आज ‘वाल्मीकि नगर’ के नाम से जाना जाता है। माता सीता ने यही महामुनि के आश्रम में अपने दोनों यशस्वी पुत्रों लव-कुश को जन्म दिया था। दोनों पुत्र मेरी मधुर गोद में ही पाल-पोषकर सर्वविद्या विद्या कर अयोध्यापति श्रीराम तक को चुनौती दिए थे और अपनी माता के सम्मान की रक्षा किये थे। देश का सबसे प्राचीन मंदिर मेरे कैमूर पर्वत श्रेणी की पवरा पहाड़ी पर स्थित ‘माँ मुंडेश्वरी देवी’ का एक अष्टकोणीय मंदिर’ है, जिसमें आदिशक्ति माता ‘बराह’ के रूप में विराजमान हैं। इसके मध्य में पँचमुखी जागृत शिव जी हैं, जो दिन के प्रायः हर प्रहर में अपना रंग बदलते ही रहते हैं।

इस प्रकार मैं, राजा जनक द्वारा पूजित, महाबली जरासंघ, दानवीर कर्ण, राजा सहदेव द्वारा पालित-पोषित, भगवान बुद्ध की तप और ज्ञान से समुन्नत, महावीर स्वामी के सिद्धांतों से युक्त विश्व के प्रथम गणराज्य का पोषक बिहार हूँ। कालांतर में सम्राट आजात शत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त जैसे दिग्विजयी सम्राटों ने मेरे विराट भौगोलिक स्वरूप को विस्तार प्रदान कर यथोचित निरीक्षण करते हुए पालन-पोषण किया था। परंतु कालांतर में कुछ निर्बल-स्वार्थी और विधर्मी शासकों की अधिकार-लिप्सा के कारण मेरी सीमाएँ संकुचित होती हुई गांगेय प्रदेश के कुछ अंश तक ही सीमित हो गईं है। फिर भी चतुर्दिक स्वर्ण सदृश सुनहली फसलों की शस्य-श्यामला तथा अकूत खनिज भंडार के रूप में मैं न केवल भारतवर्ष, बल्कि विश्व के लिए कल-कारखानों के लिए खनिज-स्रोत और गर्व की भूमि रही हूँ। लेकिन भारतीय अन्य प्रांतों की भाँति अंग्रेजी शासकों के साम्राज्य विस्तार की कुदृष्टि मुझ पर भी पड़ी । मैं भी गुलामी की मोटी जंजीरों में बाँध दिया गया। मेरी साधारण संतान अंग्रेजों के अत्याचार से त्राहिमाम करने लगीं। अपनी संतानों के कष्ट को देखकर मेरी आत्मा कातर क्रंदन करने लगी। विपत्ति की उस घड़ी में वीर कुँवर सिंह, महात्मा गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, जय प्रकाश नारायण, स्वामी सहजानन्द आदि अंग्रेजों की दृढ़ जंजीरों से मुझे मुक्त करने का उपक्रम किये। इस प्रकार मैं उन राष्ट्रभक्तों की पावन कर्मभूमि रही हूँ।

मेरे नामकरण के संबंध में मुझे जहाँ तक स्मरण है कि वैदिक काल में मुझे ‘कीकट’, ‘ब्रात्य’, ‘प्राच्य’ या ‘पूर्व प्रदेश’ आदि के नाम से जाना था। फिर मौर्य काल में मुझे ‘मगध’ नाम प्रदान किया, जो गुप्त काल तक मेरे परिचय का पर्याय बना रहा। उसके बाद मुझे ‘उदंतपुरी’ या ओदन्तपुरी नाम से भी विभूषित किया गया। बौद्ध कलीन मेरे अंचल में बौद्ध संन्यासियों के रहने के लिए प्रचुर संख्या में बौद्ध विहार थे, जिस कारण मुझे ‘विहारों का प्रदेश’ कहा जाने लगा और कालांतर में ‘विहार’ शब्द का ही अपभ्रंश स्वरूप ‘बिहार’ मेरे नाम का वर्तमान परिचायक बन गया है और मैं आज भी इसी ‘बिहार’ नाम से ही जगत में एक प्राचीन सांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हूँ। जेठियन (गया), चेचर (वैशाली), सोनपुर, मनेर (पटना), देवकुंड, ओरियम (भागलपुर), जनकपुर (वर्तमान नेपाल), रजरप्पा (हजारीबाग), संजय घाटी (सिंहभूम) आदि हैं। इनमें सोनपुर, चेचर (वैशाली), मनेर (पटना) ओरियम (भागलपुर), राजगीर, व्याघ्रसर (बक्सर), रजरप्पा (हजारीबाग पहले बिहार) एवं संजय घाटी (सिंहभूम) आदि मेरे पूर्व ऐतिहासिक कुछ विशेष उल्लेखनीय स्थान हैं।

प्राचीन इतिहास में मेरे मुख्यतः तीन प्रमुख महाजनपद अंग प्रदेश, मगध प्रदेश और लिच्छवी (वज्जीसंघ) प्रदेश थे। जिनमें से ‘मगध प्रदेश ही प्रमुख रहा था। मेरे मगध की विराट और शक्तिशाली सेना के नाम को ही सुनकर विश्व विजेता बनने चला यूनानी सिकंदर की विशाल सेना भय से प्रकंपित होकर आगे बढ़ने से साफ इंकार कर दी थी और उसे वापस लौटना पड़ा था। कालांतर में ‘अर्थशास्त्र’ के रचयिता व ‘राजा निर्माता’ के नाम से विख्यात कौटिल्य (चाणक्य, विष्णुगुप्त) के मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध को केंद्र कर विराट मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी, जिसे मेरा प्रिय वीर वत्स सम्राट अशोक महान ने सजाया और संवारा था। आज स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय चिन्ह ‘अशोक स्तंभ’ और राष्ट्रीय ध्वज में ‘अशोक चक्र’ मेरे वत्स सम्राट अशोक की ही देन है। विश्वप्रसिद्ध गणिका सुंदरी ‘आम्रपाली’ की नगरी मेरी प्राचीन ‘वैशाली’ ही है। आम्रपाली ने अपनी सुंदरता और चातुर्य के बल पर प्राचीन काल में ही प्रमाणित कर दिया था कि इस धरती पर नारी-शक्ति भी अपना वर्चस्व स्थापित कर सकती है। मैं नारी-शक्ति का उपासक आम्रपाली की अपरिमित प्रतिभा को साबित करने का उसे भरपूर मौका प्रदान किया था।

आज दुनिया भर में पुष्पित और सुरभित प्रसिद्ध बौद्ध धर्म का बीज अंकुरण मेरे पुष्ट सीने ‘गया’ (बौद्ध गया) में ही हुआ था, जहाँ पर भगवान बुद्ध के अशांत मन को दिव्य ज्ञान ज्योति से शांति प्राप्त हुआ था। जिसके आलोक से आज सम्पूर्ण विश्व आलोकित हुआ है। इसी तरह से सम्यक-दर्शन (सही विश्वास), सम्यक-ज्ञान (सही ज्ञान) और सम्यक-चरित्र (सही आचरण) के संदेश को प्रसारित करने वाले महावीर स्वामी भी मेरे ही वैशाली के कुंडल ग्राम में प्रकट हुए थे। मैं ही उनकी कर्म-भूमि रही हूँ। अंततः मैं ही निर्वाण-भूमि (पावा) भी रहा हूँ। सिखों के दसवें और आखिरी ‘गुरु’ गुरु गोबिंद सिंह का भी जन्म मेरी वर्तमान राजधानी नगरी पटना के पूर्वी भाग (पटना साहिब) में ही हुआ था, जहाँ उनके स्मरण में आज भव्य ‘हरमंदिर’ निर्मित है। यह सिखों के पाँच पवित्र तख्तों (स्थल) में से एक प्रमुख है। बारहवीं वीं सदी के एक महान भारतीय सूफी संत ‘हज़रत मख़दूम कमालुद्दीन यह्या’ का ‘आस्ताना’ (दरगाह या मजार) मेरी राजधानी पटना के पास ही ‘मनेर’ में स्थित है, जिसे भारत में ‘खानकाहों (दरगाहों) की जननी’ माना जाता है। एक अन्य ‘हज़रत मख़दूम शेख़ शरीफुद्दीन यह्या मनेरी रहमतुल्लाह अलैहि’ का ‘आस्ताना’ मेरे बिहार शरीफ में स्थित है। इन प्रमुख दरगाहों पर लगभग सभी धर्म के लोग जाते हैं और अपनी श्रद्धा भक्ति अर्पण करते हैं । ‘पादरी की हवेली’ के नाम से विख्यात लगभग 300 वर्ष पुराना चर्च मेरे हृदय नगरी पटना सिटी में स्थित है, जहाँ ईसाई पर्व पर बहुत भीड़ एकत्रित होती है।

मेरी संतानों में प्राचीन काल से ही परस्पर धार्मिक सहिष्णुता रही है। सभी मिलजुल कर होली-दिवाली, बैशाखी, ईद-मुहर्रम, क्रिसमस आदि पर्व मनाते हुए मुझे ‘महामानव का प्रशांत समुद्र’ सिद्ध करते रहे हैं। ऐसे में मेरी संतानों की आस्था का प्रतीक ‘छठ पर्व’ के समय ‘उठ्हूँ सुरुज देव अरग के बेर’ जैसे सामूहिक सुरमय गीतों से मेरा तन-मन पुलकित हो उठता है। उस समय मैं पूर्णतः ‘ठेकुआमय’ हो जाता हूँ, जिसके पावन सांस्कृतिक सुगंध के प्रभाव से देश-देशान्तर भी अछूता नहीं रह पाता है। विश्व भर में जहाँ कहीं भी मेरी बिहारी संतान हैं, वहाँ के वातावरण को वे ‘ठेकुआमय’ बना देते हैं। मुझसे परे प्रदेशों और देशांतरों के अन्य लोग मेरी बिहारी संतानों से सादर ‘ठेकुआ’ की उम्मीद रखते हैं। ‘छठी ठेकुआ’ को प्राप्त कर वे धन्य हो उठते हैं। कितना अच्छा लगता है मेरी संतानों की यह संस्कृति!

परंतु आज जब कोई मुझे ‘बीमारू राज्य’ और मेरी संतानों को ‘गंवार’ कहकर संबोधित करता है, तो मेरे हृदय पर कठोर कुठाराघात-सा प्रतीत होता है। उनकी सोच-समझ और ज्ञान पर शंका उत्पन्न होती है। जबकि आज भी मेरी संतान सुई से लेकर स्थूल विमान निर्माण में संलग्न हैं। भारत सहित कई अन्य देशों के नव-निर्माण मात्र ही नहीं, वरन वहाँ की केन्द्रीय शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में भी मेरी यशस्वी संतानों की योग्यता और कर्मठता प्रशंसनीय रही है। ऐतिहासिक पृष्टभूमि और गौरवगाथा के आधार पर जब मेरी तुलना भारतीय अन्य राज्यों से की जाती है, तो मैं कृषि, खनिज, व्यापार, ज्ञान आदि की दृष्टि से समृद्धशाली प्रमाणित होता हूँ। भले ही मेरी गरिमा वर्तमान की ओछी, स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति के कारण बहुत कुछ धूमिल-सी हो गई है, लेकिन मेरे इतिहास पर मेरी हर संतान सहित देशवासियों को भी गर्वित होना अपेक्षित ही है।

मेरे प्राचीन ज्ञान-केंद्र नालंदा, विक्रमशीला, उदंतगिरी आदि विश्व-विद्यालय विश्वभर में अपनी शैक्षणिक प्रभुत्व के अलख जगाने के लिए प्रसिद्ध रहे थे। विद्या प्रदान करने के क्षेत्र में इन शिक्षा केंद्रों ने देश-देशान्तर की परिधि को तोड़ते हुए विश्व भर के विद्यार्थियों को निःशुल्क उत्तम शिक्षा प्रदान कर विश्व मानवता को ज्ञान से आलोकित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किए हैं। फाह्यान, ह्वेनत्सांग, इत्सिंग, मेगास्थनीज, तारानाथ आदि विदेशी शिक्षा-प्रेमियों ने मेरे इन्ही ज्ञान-केंद्रों से भारतीय प्रगाढ़ ज्ञान-पुंज से समृद्ध होकर अपने-अपने स्वदेश लौटे और अपने अर्जित ज्ञान से अपने देश को ज्ञान से आलोकित किए। दु:ख की बात है कि कालांतर में मेरे इन विशाल शिक्षा केंद्रों तथा अनगिनत धार्मिक-स्थलों को धर्मांधता की पट्टी को अपनी आँखों पर बाँधे मानवता तथा ज्ञान के प्रबल शत्रु, क्रूर और अत्याचारी मुस्लिम शासकों ने बिल्कुल विनष्ट कर उन्हें खंडहरों में परिणत कर दिया। आज भी उन खंडहरों से उनके विराट शैक्षणिक इतिहास की आवाजें रह-रह कर आती ही रहती है, जिसे सुन-सुन कर मेरे हृदय में टीस-सी उत्पन्न होती ही रहती है।

प्राचीन काल से सांस्कृतिक और राजनीतिक के रूप में सुप्रतिष्ठित मैं, बिहार बारहवीं शताब्दी के अंत तक तुर्को तथा क्रूर मुस्लिम शासकों से आक्रांत होकर शनै: शनै: अपनी सारी प्रतिष्ठा को खोते चला गया। मेरी आँखों के सामने ही मेरे सैकड़ों भव्य मंदिर ध्वंश कर दिए गए। उनके अवशेषों पर मस्जिदों को निर्मित किया गया। मेरी हजारों-लाखों सनातनी संतानों को तलवार के नोंक पर धर्मांतरण किया गया। मैं लाचार चुपचाप सबकुछ होते देखा। मुगल काल में ही मेरी धरती पर शेरशाह सूरी नामक एक लोकप्रिय शासक हुआ था, जिसका शासन केंद्र मेरे मध्य-पश्चिम भाग में स्थित सासाराम था। उसे भूमि-सुधार, सड़क निर्माण आदि सार्वजनिक क्षेत्र में विशेष निर्माण हेतु भारतीय इतिहास में जाना जाता है। मैंने डक्कन पठार के एक ब्राह्मण पुत्र सूर्य नारायण मिश्र को मुगल शासक हाजी शफ़ी द्वारा खरीद कर उसे मुर्शीदकुली खान के रूप में बंगाल का शासक बनते देखा है। फिर मैंने देखा कि उसने औरंगजेब के आदेश पर किस तरह क्रूरता के चरम पर पहुँच कर हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया था। मैंने देखा है कि विश्व में ज्ञान की ज्योति को फैलाने वाला ‘नालंदा’ को तत्कालीन बिहार का मुगल शासक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने दो बार जलाया। पर ‘नालंदा’ का विराट अस्तित्व उन दो बार की तबाही से भी बचा ही रह गया था। फिर अज्ञानता का पोषक उस आततायी बख्तियार खिलजी ने सन् 1200 में नालंदा को तीसरी बार नष्ट-भ्रष्ट कर उसे पुनः आग में जलाकर पूर्णतः विनष्ट ही कर दिया। मेरा हृदय लहू-लुहान हो गया, जो बाद में तुर्क और मुगल शासकों के क्रूरतापूर्ण कार्यों से और भी व्यथित ही होता गया। ‘अन्याय के अंधकार के बाद एक दिन न्याय का प्रकाश फैलेगा’ इसी उम्मीद पर मैं सारे दु:ख-क्लेश को सहता ही गया। परंतु वह न्याय का प्रकाश अभी मुझसे बहुत दूर ही था।

मुगलों के उपरांत मैंने अंग्रेजों के अत्याचार का भी प्रबल साक्षी रहा हूँ। अंग्रेज जो पहले व्यापारी बनकर मेरी संतानों का आर्थिक शोषण किये। फिर उनकी जमीन-जायदाद आदि हड़प लिये। मेरी संतानें मालिक से मजदूर बनने के लिए मजबूर ही गईं। मैं विपत्ति की जो मकड़ी-जाल में फँसी कि उससे मुक्त न हो पाई। ब्रिटिश शासन काल के अंतर्गत दीर्घ काल तक तत्कालीन ‘बंगाल प्रेसीडेंसी’ का ही एक महत्वपूर्ण कृषि-सम्पन्न भू-भाग रहा था। मेरे ऊपर शासन की बागडोर भारत का तत्कालीन राजधानी ‘कलकत्ता’ के अधिकारियों के हाथों में थी। इस दौरान मेरे जन-जीवन, राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों पर पूरी तरह से बंगाल का ही दबदबा बना रहा था। मैं उत्पादक होकर कर भी निरंतर उपेक्षा और आर्थिक शोषण का शिकार ही बना रहा। जिस कारण सामाजिक, राजनीति, आर्थिक और शैक्षणिक चेतना की दृष्टि से मैं अन्य भारतीय प्रांतों की अपेक्षा तेजी से पिछड़ता ही चला गया। सन् 1912 में मैं बंगाल प्रांत से अलग हुआ। मेरा तत्कालीन भौगोलिक स्वरूप वर्तमान उड़ीसा और झारखंड युक्त एक विशाल राज्य के रूप में था। तब मेरी भौगोलिक सीमाएँ उत्तर में हिमालय की पाद-भूमि से लेकर दक्षिण में लहराते बंगाल की खाड़ी तट तक फैली हुई थी। पर बाद में 1935 में तत्कालीन ‘भारत सरकार अधिनियम, 1935’ के तहत भाषा के आधार पर भगवान जगन्नाथ के आशीर्वाद प्रांत उड़ीसा को मुझसे अलग कर मेरे आकार को छोटा कर दिया गया। पर मैंने विभाजन के उस दर्द को अपने उत्कल-पुत्रों के संभावित निरंतर विकास और सुख-संपदा की उम्मीद पर चुपचाप सह गया।

सन् 1947 में देश की आजादी के बाद भी एक राज्य के तौर पर मेरी भौगौलिक सीमाएँ पूर्वरत ही बनी रहीं। इसके बाद 1956 में पुनः भाषाई आधार पर मेरे पुरुलिया जिले के कुछ अंश को पश्चिम बंगाल में जोड़ दिया गया। इस प्रकार मैं निरंतर राजनीतिक और भौगिलीक सीमा संकुचन का शिकार होते ही रहा। मेरी यह स्थिति सन् 2000 तक वैसी ही बनी रही। फिर शासन व्यवस्था, भाषा, संस्कृति और आर्थिक उन्नति के नाम पर एक बार फिर विभाजन की घातक क्रूर छुरी मेरे सीने पर चली और नवंबर 2000 में तत्कालीन दक्षिणी बिहार को ‘झारखंड’ के नाम पर एक अलग राज्य बना कर उसे मुझसे अलग कर दिया गया। इस प्रकार मेरा प्राचीन स्वरूप (मगध) साम्राज्य की जो सीमाएँ कभी पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी तक और उत्तर में हिमालय की पादभूमि से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक सुविस्तृत फैली हुई थीं, अब वह संकुचित होकर थोड़ी-सी गांगेय प्रदेश मात्र तक सिमट कर रह गई है । पर इसके लिए मेरे मन में कोई संताप नहीं है। मैंने प्राचीन काल से ही भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी द्वारा प्रशस्त ‘सर्व सुखाए’ की नीति पर ही विश्वास किया है और उसी का निरंतर अनुकरण भी किया है। उसके लिए मुझसे जो कुछ भी बन पाएगा, वह करने के लिए मैं सदैव तत्पर हूँ और भविष्य में तत्पर रहूँगा भी।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के क्षेत्र में भी मेरा योगदान किसी भी भारतीय राज्य से कम नहीं रहा है। जब अंग्रेजों की ‘राज्य-हड़प नीति’ अपने चरम पर थी, तब 80 वर्ष की ढलती आयु में मेरे एक वीर पुत्र कुँवर सिंह (आरा के जगदीशपुर) ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जैसे रण-कौशल का नेतृत्व किया था, उसे देखकर अंग्रेज अधिकारीगण भी दांतों तले अपनी अंगुलियाँ दबा लिये थे। जरूरत पड़ने पर उसने अपनी जख्मी बाँह को स्वयं अपने तलवार से काट कर गंगा को समर्पित कर दिया। मेरे ही एक किसान सपूत राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर भारतीयों के लिए बिल्कुल अजनबी मोहनदास करमचंद गाँधी मोतीहारी पहुँचे और उन्होंने ‘चंपारण कृषक आंदोलन’ का नेतृत्व कर जेल की यात्रा की। अंततः उनके नेतृत्व में ‘चंपारण कृषक आंदोलन’ सफल हुआ, जिसके आधार पर मोहनदास करमचंद गाँधी ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन’ का केंद्र पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। कालांतर में वह ‘बापू’, ‘महात्मा’ और फिर ‘राष्ट्रपिता’ जैसे गरिमामय सम्मानीय पद को प्राप्त कर अनंतकाल के लिए अमरत्व को प्राप्त किये।

मेरी शस्य-श्यामला भूमि केवल कृषि-सम्पन्न भूमि ही न होकर रत्न-गर्भा भी रही है। मेरा दक्षिण भाग (वर्तमान झारखंड के छोटा नागपुर का पाठरी अंचल) प्रायः सभी प्रकार के खनिज पदार्थों से युक्त अपने आप में ‘खनिज का भंडार’ है। फलतः मेरा दक्षिणी भाग उद्योग-धंधों से पूर्ण विकसित रहा है। इसके महत्व को सबसे पहले उद्योगपति जमशेदजी टाटा ने पहचाना और ‘टाटा इस्पात संयंत्र’ को स्थापित किया, जिससे निर्मित लौह-इस्पात आज भी देश के प्रमुख संरचनाओं को मजबूती प्रदान किये हुए है। कोलकाता-हावड़ा के संपर्क सूत्र ‘हावड़ा-पुल’ उसी के बदौलत आज भी शान से खड़ा अपनी मजबूती को प्रदर्शित कर रहा है । ‘टाटा’ की निर्मित गाड़ियों की संख्या आज विश्व भर में सर्वाधिक हैं। आज ‘टाटा’ का अर्थ ही हो गया है ‘विश्वास’।

मेरी शस्य-श्यामला और रत्न-गर्भा भूमि वीर-सपूत प्रसूता भी रही है। निरंतर आक्रमण, शोषण, अत्याचार, विभाजन आदि की विषम परिस्थितियों में भी मेरी पावन भूमि ने हर कालखंड में प्रायः हर मानवीय क्षेत्र में स्वर्णिम इतिहास रचने वाले विशिष्ठ व्यक्तित्व को भी जन्म दी है, जिन पर न सिर्फ मैं ही, बल्कि सारे देशवासी ही गर्व महसूस करते हैं। कुछेक ने तो विश्व-स्तर पर अपनी ख्याति अर्जित की है। इस सिलसिले में सारन जिला के जिरादेई के डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध है। मेरे लिए बहुत ही गर्व की बात है कि मेरा वह यशस्वी पुत्र स्वतंत्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति बना। इसी तरह शाहाबाद (आरा) जिले के मुरार गाँव के डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा, जो स्वतंत्र भारत के संविधान सभा का प्रथम अध्यक्ष बने थे। मेरी अन्य उल्लेखनीय संतानों में जगदीशपुर के वीर कुँवर सिंह, ‘बिहार केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध श्रीकृष्ण सिंह, राजकुमार शुक्ल, बाबू अनुग्रह नारायण सिंह, बसावन सिंह, जय प्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, रमेश चन्द्र झा, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, श्रीकृष्ण सिन्हा, ठाकुर युगल किशोर सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, राम दुलारी सिन्हा, देवीपद चौधरी, राय गोविंद सिंह, रामानंद सिंह, राजेन्द्र सिंह, जगपति कुमार, सतीश प्रसाद झा, उमाकांत सिंह आदि का भी नाम सादर सहित लिया जाता है।

देश की आजादी के उपरांत प्रशासनिक अन्याय के विरूद्ध मेरे जयप्रकाश नारायण जैसे सपूत के छात्र आंदोलन को भला कौन भुला सकता है, जिसका प्रभाव न सिर्फ मुझ तक, बल्कि पूरे देश में फैला था। सम्पूर्ण देश की राजनीति और सामाजिक स्थिति में काफी बदलाव हुए, जिसके फलस्वरूप समाज के उपेक्षित और दलित वर्ग के लोगों में भी अधिकार प्राप्ति संबंधित जागरण की लहर दौड़ी और वे भी राजनीति और प्रशासन के कर्णधार बने। यह अलग बात है कि वे ज्यादातर क्षेत्रीयता के भाव-बंधन से स्वयं को मुक्त न कर मेरी विशेष उन्नति की सम्मिलित भाव से विमुख ही रहें। फलतः मेरे प्रांतों और मेरी अधिकांश संतानों की सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति में कोई विशेष उन्नति न होकर पूर्वरत पिछड़ी ही रही। लेकिन दूरगामी विकासशील सोच रखने वाले राजनेताओं और उच्च अधिकारियों के प्रयास से वर्तमान में मेरे विकास की पहिया द्रुतगति से चलायमान है।
मेरे यशस्वी पुत्रों ने विविध कार्य-क्षेत्रों में अपने कौशल को प्रदर्शित करते हुए देश के नागरिक और गैर-नागरिक सर्वोच्च सम्मानों से विभूषित होकर मेरी गरिमा को बढ़ाए हैं। अब तक मेरे पाँच महान पुत्रों यथा, – डॉक्टर विधान चंद्र राय (1961), डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद (1962), जय प्रकाश नारायण (1999), शहनाई वादक बिस्मिल्ला खाँ (2001) और कर्पूरी ठाकुर (2024) ने ‘भारत रत्न’ को प्राप्त कर मुझे और मेरे निवासियों को सम्मानित कर चुके हैं। मेरे ही भागलपुर में जन्मे ‘दादामुनि’ के नाम से विख्यात अभिनेता अशोक कुमार ने फिल्मों में अपनी विशेष उपलब्धियों के लिए ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ प्राप्त कर मुझे सम्मानित किया है। ‘देवदास’ जैसे अमर कृति के रचनाकर बँगला उपन्यास सम्राट शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के चिंतन तरुणाई का अधिकांश भाग मेरे भागलपुर के आदमपुर में ही बीता है। ‘साहित्य अकादमी पुरुस्कार’ तथा ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ दोनों से ही सम्मानित रामधारी सिंह ‘दिनकर’, तथा ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, अनामिका आदि ने समय-समय पर मुझे विशेष साहित्यिक गौरव प्रदान किए हैं। मेरे वीरपुत्र लांस नायक अल्बर्ट एक्का (तत्कालीन बिहार) ने मातृभूमि की रक्षा करते हुए अद्भुत सैन्य पराक्रम को प्रदर्शित करते हुए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित हुआ, जबकि ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित होने वाला देश का प्रथम सैनिक मेरा ही वीरपुत्र श्याम बहादुर सिंह (मरणोपरांत, छपरा) रहा था, फिर वीरपुत्र रणधीर वर्मा (धनबाद, तत्कालीन बिहार) को भी ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया गया था। उनके ‘परमवीर चक्र’ और ‘अशोक चक्र’ से मेरा सीना आज भी दमकते ही रहता है।

साहित्य-शिक्षा के क्षेत्र में सरस्वती वरद मेरी संतानों में नाट्यकार व गीतकार ज्यातिरीश्वर ठाकुर, ‘मैथिल कोकिल’ विद्यापति, ‘बिहार के बीरबल’ गोऊ झा से लेकर, महेश नारायण ठाकुर, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ ‘रेनू’, गोपाल सिंह ‘नेपाली’, ‘यात्री’ उपनाम से प्रसिद्ध बाबा नागार्जुन, विश्व प्रसिद्ध तिलिस्मी उपन्यास ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के अमर लेखक देवकीनंदन खत्री, राज कमल चौधरी, वाचस्पति मिश्र, राजा राधिका रमन प्रसाद सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, नलिन विलोचन शर्मा, नन्द किशोर ‘नवल’, कवि नचिकेता, रमेश चंद्र झा, गीताश्री, रॉबिन शॉ पुष्प, अरविन्द श्रीवास्तव, अरुण कमल, अरुण प्रकाश, केदारनाथ मिश्र, आलोक धन्वा, अनामिका, डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह, आनंद कुमार आदि का नाम विशेष रूप में उल्लेखनीय है । जिन्होंने अपनी साहित्य और शिक्षा-साधना से क्षेत्रीयता के बंधन से परे देश और विश्व-मानव की सेवा करते हुए मेरे सम्मान को अभिवृद्धि किया है।

विज्ञान के क्षेत्र में भी मेरे सपूतों ने कदम से कदम मिला कर देश का नाम रौशन किया है। ‘विज्ञान लोकप्रियकरण’ के लिए प्रसिद्ध गोविंद बी. लाल, बिन्देश्वरी पाठक (सुलभ शौचालय), डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह, डॉक्टर अमिताभ (इसरो), डॉक्टर अतुल कुमार वर्मा (दवा), डॉक्टर मानस बिहारी वर्मा (वैमानिक विज्ञान) आदि बिहारी-पुत्रों के योगदान देश सहित वैश्वीय स्तर पर सदैव स्मरणीय ही रहेगा।

कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी मेरी संतानों का योगदान कोई कम नहीं है। इनमें राधामोहन प्रसाद, उपेन्द्र महारथी, श्याम शर्मा, ईश्वरी प्रसाद वर्मा, सीता देवी, पंo रामचतुर मालिक, महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर, श्याम मालिक, कुंज बिहारी मालिक, रामचरित्र मलिक, बद्री मिश्र, शिवदीन पाठक, विंध्यवासिनी देवी, बिस्मिल्ला खान, चित्रगुप्त, शमसूल हुदा बिहारी, शारदा सिन्हा आदि ने अपने-अपने क्षेत्र में चिरस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किए हैं।

मेरी संतान खेत-खलिहान से लेकर मैदानों में ही खेलकूद कर बड़े होते और सामाजिकता को वरन करते हैं। खेलकूद के मैदान में भी मेरी संतानों ने कई अविस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किए हैं। कीर्ति आजाद (क्रिकेट), महेंद्र सिंह धोनी, (क्रिकेट, वर्तमान झारखंड), सबा करीम (क्रिकेट), जफर इकबाल (हॉकी), शिवनाथ सिंह (धावक), श्रेयसी सिंह, (निशानेबाजी) से लेकर कैरम प्रजेता रश्मी कुमारी का नाम समादर के साथ लिया जा सकता है।

फिल्म जगत के रजतपट से जुड़े मेरे प्रमुख बिहारी व्यक्तित्वों में चित्रगुप्त, भगवान सिन्हा, अशोक कुमार, गणेश प्रसाद सिंह, शैलेन्द्र कुमार, शत्रुघन सिन्हा, अभी भट्टाचार्य, तपन सिन्हा, साधना सिंह, प्यारे मोहन सहाय, शेखर सुमन, मनोज बाजपेयी, आलोकनाथ, अखिलेन्द्र मिश्र, मनोज तिवारी ‘मृदुल’, प्रकाश झा, उदित नारायण, पंकज त्रिपाठी, आर. माधवन, संजय मिश्रा, राम गोपाल वर्मा, दिलेर मेहंदी, सुशांत सिन्हा आदि का नाम सुनहरे परदे पर हमेशा जीवंत ही रहेगा।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

मेरी संतानों में कभी भी अपने ही प्रांत या देश की परिपाटी न रही है, बल्कि वे देश-देशान्तर और विदेशों में भी बस कर उसकी उन्नति जनक कार्य में तल्लीन रहे हैं। फिर वहाँ की भाषा, संस्कृति, जीवन-मीमांसा को अपना कर उसे ही अपनी मातृभूमि मान कर उसकी सेवा में निरंतर अपने आप को लगाए रखे हैं। कालांतर में वे वहाँ की राजनीति और शासन-प्रबंध में भी युक्त होकर उस राष्ट्र के प्रति अपनी राष्ट्र-भक्ति को प्रदर्शित भी किए हैं और कर भी रहे हैं। मेरे मूल के विदेशों शासकों में अनिरुद्ध (अहीर यदुवंशी जाति), परमानन्द झा, नेपाल के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं नेपाल के उच्चतम् न्यायालय के भूतपूर्व न्यायधीश (दरभंगा, बिहार) नवीन चन्द्र राम गुलाम, मौरिसस के प्रधान मंत्री, (आरा, बिहार) शिवसागर रामगुलाम, मारिशस के प्रथम मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री एवं छठे गवर्नर-जनरल (भारतीय बिहारी प्रवासी), मॉरिशस के राष्ट्रपति राजकेश्वर प्रयाग (पुनपुन प्रखंड, वाजितपुर गाँव), गिरिजा प्रसाद कोइराला, नेपाल के प्रधान मंत्री, (सहरसा, बिहार) आदि का नाम भी समादृत है।

अतः आप ‘बिहारी’ कहलाने पर अपमान नहीं, वरन ‘गर्व’ महसूस कीजिए।

मेरी बिहारी संतान अपने ज्ञान, श्रम, बुद्धि, बल आदि के द्वारा कभी विश्व-मार्गदर्शन करने की अतुलनीय क्षमता रखते हुए देश के स्वर्णिम युग का निर्माता रही हैं, पर आज वह जातिवादी, क्षेत्रवादी, प्रांतवादी राजनीति के दलदल में फंस कर इतनी पिछड़ चुकी है कि कभी दुनिया की श्रेष्ठ प्रतिभा और श्रमशक्ति की इकाई होते हुए भी मेरी संतान पिछड़ेपन के गंभीर अंधकार में कहीं भटक-सी गई हैं। आवश्यकता है उन्हें आपसी रंजिश को त्याग कर मेरे और देश हीत में कार्य करने की, जिससे मेरी पावन भूमि अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर सके।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक,
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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