मजबूरी
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थक चुका है मांगकर भीख
बहाकर अपनी आँसू को,
मजबूर हो गए भूख से
फेंके हुए अन्न खाने को,
दान में तो दे देते है लोग
लाखों रुपयें मंदिरों पर,
कोई ऐसा दानी मिला नहीं
गरीबों पर दया दिखाने को।
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पता ही नहीं चला
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परिवारों के साथ हँसते-हँसते
कब हँसना भूल गया पता ही नहीं चला ।
बच्चों को पैरों पर खड़ा करते-करते
कब पैर थरथराने लगा पता ही नहीं चला ।
सभी की परवाह करते-करते
कब बेपरवाह हो गया पता ही नहीं चला।
ज़िन्दगी की राह बताते-बताते
कब बेराह हो गया पता ही नहीं चला ।
अपनों की खातिर जीते-जीते
कब जीना भूल गया पता ही नहीं चला ।
पिता के दायित्वों को निभाते-निभाते
कब बूढ़ा हो चुका पता ही नहीं चला ।