“हे कश्मीर!”
हे! कश्मीर तेरी बात क्या करें हम अब,
तू खुद ही खुद में बेमिसाल सी झलकती है।
तेरी वादियों पे अब क्या ही नज़्म लिख दें हम,
तेरी वादी तो खुद ही खुद में गीत लिखती है।
ओ कश्मीर तेरी गोद में जादू कैसा ?
जो किसी को भी मोहब्बत में डुबा देती है!
तेरी नजरों के नीचे जो बसा सुंदर डल है,
उसमें बहती शिकारें इश्क़ किया करती हैं।
ओ रे, कश्मीर तेरी वादी की पहचान है जो,
वो प्रेम की हवा कहाँ से तू ले आती है?
माना वादी में तेरी है इतनी चाहत,
जो इस हवा को भी तू खींच के ले आती है।
ओ रे, कश्मीर तू है गवाह इस बात की भी,
के तुझे कई शायरों ने भी गाया होगा!
के कितनों ने तुमपर नज़्म लिखें होंगे,
तो कितनों ने तुम्हें लिखते समय अश्क बहाया होगा।
हाँ कश्मीर तेरी वादी में है दर्द इतना!
के हर कवी को ये रुला के मनवाती है।
हाँ कश्मीर तुम्हें कुछ और भी बताना है,
तेरी सरगोशी में है ये पूरा वतन फिदा,
इश्क़ करते हैं इसीलिए ये मनाते हैं!
के तू इस वतन से न ही होना कभी भी जुदा।
-दुर्गेश वाजपेयी