डॉ. तेजस्विनी दीपक पाटील की कविता देहरी

देहरी

उस देहरी के बाहर कदम रखा,
और इस देहरी के अंदर आ गई।
इन के बीच एक खुला आँगन भी होता है,
खुले आकाश के नीचे,
पता ही नहीं चला।
खिडकी से आवाज़ें आती है
धुवाँधार बारिश की,
और तेज हवाओं की भी।
कभी कभी कोई सुरीली धुन,
या मिट्टी की सौंधी सी खूशबू भी बेकरार कर देती है,
इस देहरी को लाँघकर जाने के लिए।
कभी कोई सुंदर सी तितली
इतराकर जाती है, आसपास
और छोड़ जाती है
इत्र की बूँदे, मेरी हथेली पर
जो नींद में भी महकती रहती हैं,
और एहसास दिलाती है,
देहरी की ऊंचाई का,
हर साँस के साथ।
@ तेजस्विनी

डॉ. तेजस्विनी दीपक पाटील

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