डीपी सिंह की कविता : “भाई चारा”

“भाई-चारा”
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आज कलम तेरी जय-जय हो, तू ऐसा कुछ ख़ास लिखे
भारत की आवाज बने तू जन-जन का विश्वास लिखे।
शीश कलम बेशक हो जाए किन्तु नहीं झुकने पाए,
भारत के उगते सूरज का तू स्वर्णिम इतिहास लिखे।

चूर अहम् में हो जब सत्ता पद लोलुप हो जाती है।
धर्म ध्वजा के पहरेदारों में ख़ामोशी छाती है।
जन का अन्तर्नाद गगन में जब गुञ्जित होने लगता,
चीख कलम की जग को तब तब ही झकझोर जगाती है।

हमें बताया सब धर्मों के मर्म बराबर होते हैं
और बताया था सबके ही कर्म बराबर होते हैं।
हम वसुधैव कुटुम्ब कहें वो, काफ़िर कह संहार करें
बतलाओ कैसे कह दें सब, धर्म बराबर होते हैं।

जिसको देखो पिला पड़ा है मुझको ही समझाने में,
कौन खरा है खोटा किसका सिक्का ये बतलाने में।
सिक्के का दूजा पहलू देखा कब किसने, व्यस्त हुए
मेरे चश्मे पर अपने मन वाला रंग चढ़ाने में।

गंगा-जमुना, भाई-चारा,
कबतक झूठ पढ़ाओगे?
और सियासी चीनी लिपटे, कड़वा घूँट पिलाओगे?

बँटवारा मेरे शव पर ही,
होगा, जिसने झूठ गढ़े
पाँच लाख तो बँटवारे में,
ही दंगे की भेंट चढ़े।

जिस लाठी-चरखे से गोरे देश छोड़कर भागे थे,
कुन्द वही हथियार सभी क्यों तब जिन्ना के आगे थे?

सदियों पहले देखा हमने,
कितना भाई चारा था
भाई मती दास के ऊपर
जब चलवाया आरा था।

सती दास को रूई में जब
जिंदा ही जलवाया था,
शहजादों को दीवारों में
जिंदा ही चुनवाया था।

निर्वसना बेटी-बहनों की
मंडी लगवाई जातीं,
स्तन काट कर पेड़ों पर भी
लाशें लटकाई जातीं।

काशी-मथुरा और अयोध्या,
सोमनाथ क्यों तोड़े थे?
लाखों हिन्दू काट दिए जो,
इनके पथ के रोड़े थे।

दुर्व्यवहार शवों से करते,
जब पद्मा ने जान लिया
जिंदा जल जाना ही बेहतर,
उसने मन में ठान लिया।

बर्बरता की हदें सभी तब
पार किया करते थे जो,
वही मानसिकता अब भी है
वार चार सौ करते वो।

काश्मीर के लाखों भाई,
बनकर भाई का चारा
अब तक दर-दर भटक रहे हैं
संग लिए कुनबा सारा।

वो वाला ही भाई चारा,
इनका अबतक जारी है
भाई की गजवा-ए-हिन्द की
अब पूरी तैयारी है।

डीपी सिंह

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