स्मृतियों की पगडण्डी पर
स्मृतियों की लताओं में उलझा सा
इतराता रहा इस जीवन पर
याद आते रहे वे दिन सुहाने,
बचपन के, लड़कपन के
स्मृतियों की पगडण्डी पर बढ़ते हुए
सागर के लहरों से उद्वेलित
रोम-रोम हर्षित हो उठा
माँ की गोद में सिर रख,
महसूस किया मैने जब
इस जीवन में यह सुख पा सका
कहीं और यह मिलता कहा
बदलते समय के साथ विचार भी संकुचित लगने लगे|
एहसास हुआ धारणा ही गलत थी मेरी
जो परिधि को केंद्र समझता रहा,
सूर्य किरणों को
एक छोटे कमरे में बन्द कर
सीमित करना चाहा |
स्मृतियों की पगडण्डी पर जब बढ़ता गया
याद आया सोनी का,
अपने बछड़े को चाट कर साफ करना
उससे अलग हो उसका रोना
न जाने कितने दिनों तक सालती रही मुझे
उसके मुख पर पड़े आँसू के दाग़
फिर याद आया उस लाली का
जिसे अक्सर घर के पास देखता
उसके बच्चे का नाली में गिरना
उसे निकालने की उसकी विकलता
इधर-उधर दौड़ना भागना
याद आया फिर वह आम का पेड़
उस पर कौवे का घोंसला
घोंसले के नजदीक लोगो को जाते देख
आशंकित हो’ उसका लोगो के सिर पर चोट मारना
अचानक ध्यान गया मेरा
उस तालाब पर
जो सड़क के किनारे था
वर्षा में डूबी, गर्मी में सूखी
हर वर्ष मैंने उस मछली को देखा
जो अपनी नन्ही मछलियों को ले
दौड़ती-भागती थी
मन को बाँधने वाला वह दृश्य
महसूस किया मैंने
भावनाओं में बंध
कितना संकुचित कियाक ममत्व को
प्रश्नचिह्न लगाया लितनो के अस्तित्व पर,
ममत्व पर
तब मेरा यह भ्रम टूटा
जब इन स्मृतियों के दृश्यों ने मुझे संकेत दिया
तुम मानव हुए तो क्या हुआ
हम मानवेत्तर ही सही
माँ और उसकी ममता
किसी योनि की मोहताज़ नहीं |
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-दिनेश लाल साव ✍🏻