स्वार्थ का हिमखण्ड गलना चाहिये
सत्य, लावा-सा निकलना चाहिये
स्वार्थ का हिमखण्ड गलना चाहिये
कब तलक चुपचाप ग़द्दारी सहें
देशहित में खूं उबलना चाहिये
बन्द हो अब झूठ का व्यापार, बस!
अब हवा का रुख़ बदलना चाहिये
भाग्य का सूरज निकलने तक हमें
दीप की मानिन्द जलना चाहिये
पाँव घायल कर रहे हों रात-दिन
ऐसे रोड़ों को कुचलना चाहिये
डीपी सिंह