प्यार बस चाहत नहीं, कुछ और है
प्यार तो परमात्मा का ठौर है
फूल-कलियाँ हैं, भ्रमर, मकरन्द भी
पूर्ण आकर्षण, प्रचुर आनन्द भी
हैं नहीं स्वाधीन ही, स्वछन्द भी
हैं सुलह के मार्ग सारे बन्द भी
व्यञ्जना जाने कहाँ पर खो गयी
स्वर वही, आनन्द लेकिन और है
प्यार बस चाहत नहीं, कुछ और है
सूर्य निश्छल प्रेम का ढलने लगा
वासना का तम गहन खलने लगा
आवरण अब लाज का गलने लगा
रूप का माधुर्य भी छलने लगा
बाँटते हैं प्यार, कहने के लिये
आड़ में, व्यापार, लेकिन और है
प्यार बस चाहत नहीं, कुछ और है
टूटते ही जा रहे परिवार अब
क्षीण हैं संयोग के आधार अब
बन गये सम्बन्ध सब व्यापार अब
कर्म भूले, याद हैं अधिकार अब
दाँत खाने के, दिखाने के अलग
बात कुछ, व्यवहार, लेकिन और है
प्यार बस चाहत नहीं, कुछ और है
प्यार तो परमात्मा का ठौर है
डीपी सिंह