प्रकृति बिना कैसी प्रगति?
डीपी सिंह
धुन्ध-धुएँ से हो रहा, आच्छादित आकाश।
इस पिशाच के पाश में, मानव जिन्दा लाश।।
मानव जिन्दा लाश, दफ़न कचरे-पन्नी में।
मना रहा है जश्न, स्वयं अपनी मरनी में।।
कह डीपी कविराय, मौत के बचो कुएँ से।
कहीं न कल जल जाय, कलेजा धुन्ध-धुएँ से।।
आवश्यक उद्योग हैं, चाहो अगर विकास।
किन्तु हवा भी स्वच्छ हो, लेने को तो श्वास।।
लेने को तो श्वास, आस है प्राणवायु की।
आस तड़पते प्राण, धुएँ से ख़त्म आयु की।।
कह डीपी कविराय, प्रगति है तभी सार्थक।
जब जाओगे चेत, प्रकृति भी है आवश्यक।।
जनसंख्या सबसे बड़ी, सभी शूल की मूल।
जिसने पूरे देश की, हिला रखी है चूल।।
हिला रखी है चूल, भूल कर वतन-परस्ती
जङ्गल बनते खेत, खेत में बसती बस्ती।।
जङ्गल बिन बरसात, खेत बिन खाएँगे क्या
समाधान बस एक, रुके बढ़ती जनसंख्या।