“विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम।
भिक्षु होकर सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम।”
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । यह सत्य है कि एक सबल भारतीय सम्राट ने तलवार के बल पर न केवल मात्र एक विशाल भू-भाग को जीता ही, बल्कि एक ‘भिक्षु’ बनकर भी इस विशाल भू-भाग पर धम्म (धर्म) विजय की पताका को फहराते हुए भारतीय संप्रभुता, सभ्यता, संस्कृति और एक धर्मनिरपेक्ष शासन-व्यवस्था की नींव रखी थी, जिसे विश्व इतिहास में ‘महान सम्राट’ की संज्ञा प्रदान की गई। उस महान ऐतिहासिक सम्राट को हम ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ के नाम से जानते हैं। क्या यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जिसके चौबीस तीलियों वाला धर्मचक्र प्रतीक चिन्ह ‘अशोक चक्र’ हमारी भारत सरकार के राष्ट्रीय ध्वज में देश की प्रगति के प्रतीक के रूप में अंकित है, जिसके चतुर्मुख चार सिंह वाले स्तम्भ चिन्ह ‘अशोक स्तम्भ’ को भारत सरकार ने अपना राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह के रूप में स्वीकार किया है।
देश में सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान जिसके नाम पर ‘अशोक चक्र’ के रूप में प्रदान किया जाता है, जिसने भारत के प्रख्यात ग्रांड ट्रंक रोड जैसी लंबी सड़कों की परिकल्पना की थी, जिसने सड़कों के दोनों किनारे छायादार वृक्ष लगाए, थोड़ी-थोड़ी दूर पर सराये बनाए, जिसने पशुओं के लिए भी चिकित्सालय बनवाए, जिसके शासन काल में देश चतुर्दिक विकास कर वास्तव में ‘सोने की चिड़िया’ कहलाया करता था, जिसके शासन काल को विश्व भर के इतिहासकारों ने ‘भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल’ कहा है, उस महान, शक्तिशाली, प्रजा-पालक, धर्म प्रचारक चक्रवर्ती सम्राट ‘देवानांप्रिय अशोक मौर्य’ के नाम पर उसी के देश में आज कोई एक साधारण वार्षिक जयंती तक न मनाई जाती है। आखिर ऐसा क्यों? क्या यह हमारे मानसिक दिवलेपन का परिचायक नहीं है? हम अपने ऐतिहासिक वीर भारत संतानों को निरंतर भूलते जा रहे हैं या फिर भूलने के लिए मजबूर किए जाते रहे हैं।
विश्व के इतिहास में शक्ति और प्रेम का पर्याय भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट अशोक का पूरा नाम ‘देवानांप्रिय अशोक मौर्य’ अर्थात ‘देवताओं का प्रियदर्शी राजा’ था। एक बौद्ध शास्त्र के अनुसार एक दिन धर्मा (कुछ पुस्तकों में उसका नाम शुभाद्रंगी है) नामक अति सुन्दर कन्या को स्वप्न आया कि उसका बेटा एक बहुत बड़ा सम्राट बनेगा। जिसे जान कर तत्कालीन मौर्य सम्राट बिन्दुसार ने उसे अपनी तीसरी रानी बना लिया। कालांतर में धर्मा के गर्भ से ही मौर्य राजमहल, वर्तमान बिहार के पाटलिपुत्र में 304 ई. पूर्व जन्मा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट अशोक हुआ। चूँकि अशोक की माता धर्मा क्षत्रिय कुल से संबंधित नहीं थी, अतः उसे राजकुल से संबंधित रानियों से कोई विशेष मान-सम्मान प्राप्त नहीं था। अशोक के कई (सौतेले) भाई-बहनें भी थे। पर अशोक उन सबों में अधिक कुशाग्र था। यही कारण है कि उनमें हर बात में ही कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी। अशोक बचपन से बुद्धि, बल, सैन्य, घुड़सवारी, रणकौशल आदि गतिविधियों में प्रवीण था।
उस समय मौर्य साम्राज्य की मुख्य राजधानी पाटलीपुत्र में थी, जबकि उप-राजधानियाँ उज्जैन तथा तक्षशिला में थीं। अशोक का एक ज्येष्ठ सौतेला भ्राता सुशीम तक्षशिला का प्रान्तपाल बना था। एक तो तक्षशिला प्रांत में भारतीय-यूनानी मूल के लोग रहते थे, और दूसरे में राजकुमार सुशीम का शासन-व्यवस्था भी कुछ दोषपूर्ण था। अतः वहाँ पर अक्सर विद्रोह की घटनायें हुआ ही करती थीं। राजा बिन्दुसार ने सुशीम के कहने पर राजकुमार अशोक को विद्रोह के दमन के लिए वहाँ भेजा। अशोक ने बहुत ही कुशलता से बिन युद्ध किए ही विद्रोह को समाप्त कर दिया। एक-दो छोटी घटनाओं में कुछ बल का उपयोग करना पड़ा था।
पर अशोक की इस कुशल राज-दक्षता और प्रसिद्धि के सामने तक्षशिला प्रांतपाल सुशीम बौना प्रतीत होने लगा। जिस कारण उसके मन में अशोक के प्रति ईर्ष्या भाव पनपने लगे। कारण, उसके मौर्य सिंहासन प्राप्ति के मार्ग में अशोक की राज-दक्षता और प्रसिद्धि बाधक बन सकती थीं। अतः उसने अशोक के विरूद्ध षड्यन्त्र रचते हुए पिता सम्राट बिंदुसार को उकसा कर अशोक को दक्षिण में कलिंग भेजवा दिया। वहीं पर उसे मत्स्य कुमारी कौर्वकी से प्रेम हो गया। प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार बाद में अशोक ने उससे शादी कर ली थी।
अब चुकी सम्राट बिन्दुसार वृद्ध और रूग्ण हो चले थे। फलतः मौर्य साम्राज्य के शासन-प्रबंध पूर्णतः सुशीम के हाथों में आ गया था। वह बहुत कुछ मन-मानी भी करने लगा था। कुछ राजाधिकारी भी उससे क्षुब्ध रहने लगे थे। इसी बीच उज्जैन में विद्रोह हो गया, जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। जिसे दबाने के लिए सुशीम ने सम्राट बिन्दुसार पर राज कुमार अशोक को बुलाने पर जोर दिया, जो इस समय निर्वासन स्वरूप कलिंग में था। राज कुमार अशोक को आते ही उसे तुरंत ही विद्रोह को दबाने के लिए उज्जैन भेज दिया गया।
कहा जाता है कि गुप्तचरों से पता चल गया था कि इस विद्रोह के पीछे राजकुमार सुशीम का ही हाथ था, जिसमें राजकुमार अशोक को मार डालने तक की योजना थी। पर राजकुमार अशोक ने बहुत ही चतुराई से उस विद्रोह को समाप्त कर दिया किया। पर इसमें वह स्वयं भी घायल हो गया था। वह राजमहल न लौट कर वहीं एक बौद्ध आश्रम में रहने लगा। यहीं पर महादेवी नामक एक शाक्य कुमारी सुन्दरी ने घायल अशोक की सेवा-सुश्रुषा की। उससे अशोक को प्रेम हो गया। स्वस्थ होने के बाद अशोक ने उससे भी विवाह कर लिया।
कुछ वर्षों में ही सुशीम के शासन से लोग तंग आ चुके थे। अतः राजाधिकारियों सहित राज्य के विशिष्ठ लोगों ने राजकुमार अशोक को ही राजसिंहासन का योग्य उत्तराधिकारी मानते हुए उसे सम्राट पद के लिए प्रोत्साहित किया। जब अशोक बौद्ध आश्रम में ही था, तब उसे समाचार मिला कि उसकी माँ को उनके सौतेले भाईयों ने मार डाला है। कहा जाता है कि तब अशोक ने आक्रामक रूप धारण कर राजमहल में जाकर अपने सौतेले भाईयों की हत्या कर दी और स्वयं मौर्य वंश का सम्राट बन गया। फिर आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद 269 ई.पू. में उसका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ था।
सत्ता संभालते ही अशोक ने राजमहल संबंधित अंदरूनी जटिलताओं को दूर किया, फिर शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उपरांत पूर्व तथा पश्चिम दोनों दिशाओं में अपने साम्राज्य को फैलाना प्रारम्भ किया। सिर्फ आठ वर्षों के कठोर परिश्रम से सम्राट अशोक ने मौर्य साम्राज्य की विजयी पताका को उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में वर्तमान म्यांमार के अधिकांश भू-भाग से लेकर पश्चिम में ईरान व बलूचिस्तान तक एकछत्र फहराई। सम्राट अशोक के अधीन विशाल साम्राज्य वर्तमान के सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भू-भाग तक फैला हुआ था। जो अब तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है।
चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8 वें वर्ष (261 ई. पू.) में कलिंग के राजा जयंत पर आक्रमण किया था। तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में लगभग डेढ़ लाख लोग बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गए थे, एक लाख से अधिक लोगों की हत्या कर दी गयी थी और लगभग डेढ़ लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। सम्राट अशोक ने इस भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा था। इस भयानक हत्याकाण्ड का जिम्मेवार सम्राट अशोक ने स्वयं अपने आप को ही माना। उसका मन व्यथित हो उठा। तत्पश्चात मन की शांति की कामना लिए उन्होंने बौद्ध भिक्षु उपगुपत से मिला। फिर उनके द्वारा प्रशस्त धर्म के मार्ग पर चलते हुए सम्राट अशोक ने तलवार को सदा के लिए फेंक कर धर्म विजय के पथ पर अग्रसर हुआ।
कलिंग युद्ध के बाद रक्त-पिपासु अशोक के स्थान पर प्रेम-पिपासु सम्राट अशोक का उद्भव हुआ, जिसे इतिहास देवनांप्रिय अशोक के नाम से याद करता है। उनका हृदय मानवता के लिए उद्वेलित होने लगा। अब सम्राट अशोक प्रेम, सहिष्णूता, सत्य, अहिंसा एवं शाकाहारी जीवन के सच्चे समर्थक और प्रचारक के रूप में अग्रसर हुए। यहाँ से उनके जीवन में आध्यात्म और धम्म विजय का एक नया सुनहरा अध्याय आरम्भ हुआ। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना तथा राजकीय धर्म स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं शिकार करना तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। आमोद-प्रमोद सबंधित यात्राओं पर पूर्ण रूप से रोक लगवा दिया। तत्पश्चात उसने पहले बोधगया की यात्रा की और तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी। लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त घोषित भी कर दिया था।
जनकल्याण के लिए सम्राट अशोक ने राज खर्च पर चिकित्सालय व सड़कें आदि का निर्माण करवाया। सर्वसुलभ शिक्षा के लिए उन्होंने कई विद्यालय, महाविद्यालय तथा कोई 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की थी। जिनमें तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, कन्धार आदि उस समय के उत्कृष्ट विश्वविद्यालय रहे थे। इन विश्वविद्यालयों में विदेशों से भी सैंकड़ों-हजारों विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आया करते थे। बौद्ध के धर्म प्रचार हेतु ‘धर्म महापात्र’ नामक पदाधिकारियों की नियुक्तियाँ की, जिनका कार्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर परस्पर धार्मिक एकता की स्थापित करना था। उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़गानिस्तान, सीरिया, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान आदि सहित अन्य सभी महाद्विपों में भी किया। उन्हीं की स्मृति में उन्होंने अपने साम्राज्य में कई स्थानों पर शिलालेख खड़े किए, जो आज भी नेपाल में गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी में मायादेवी मन्दिर के पास, सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर आदि सहित श्रीलंका, थाईलैण्ड, चीन आदि देशों में दिखाई पड़ते हैं।
सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र में 80 खंभों से निर्मित भव्य सभागार में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन भी करवाये थे, जिसकी अध्यक्षता बौद्ध भिक्षु मोगाली के परम ज्ञानी पुत्र तिष्या ने की थी। यहीं ‘अभिधम्मपिटक’ की रचना भी हुई थी। यहीं से अनगिनत बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में बौद्ध-धर्म के प्रचारक के रूप में भेजे गये थे। इसी क्रम में सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को भी विभिन्न देशों की यात्राओं पर भेजा था। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया। सम्राट अशोक से ही प्रेरित होकर श्रीलंका नरेश तिस्स ने स्वयं को ‘देवनांप्रिय’ की उपाधि धरण की थी।
सम्राट अशोक ने अपने आदेशों और आदर्शों को लोगों तक पहुँचाने के लिए 84 हजार से अधिक प्रस्तर शिलालेखों और स्तंभों का निर्माण करवाया। उन स्तंभों की बनावट उस काल की वास्तुकला का नायाब नमूना हैं। उस स्तंभों पर खास तरह के रंगों का प्रयोग किया गया है, जिसकी पहचान आज के वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है। पूर्वी क्षेत्रों में शिलालेखों पर आदेश प्राचीन मगधी भाषा में ब्राह्मी लिपि में, जबकि पश्चिमी क्षेत्रों में संस्कृत से मिलती-जुलती भाषा में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया था। एक शिलालेख में यूनानी भाषा, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अशोक अपने आप को “प्रियदर्शी” (प्राकृत में “पियदस्सी”) और देवनांप्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में “देवानम्पिय”) की उपाधि से बुलाते हैं ।
चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने लगभग 36 वर्षों तक सुचारु ढंग से शासन किया, जिसके बाद 72 वर्ष की अवस्था में लगभग 232 ईसा पूर्व में उनकी मृत्यु हो गई । प्राप्त साक्ष्य के अनुसार सम्राट अशोक की 4 पत्नियाँ थीं, महादेवी, कारुवाकी, पद्मावती और तिष्यरक्षिता थी। जबकि उनकी 6 संतानों के नाम बताए जाते हैं, महेंद्र, संघमित्रा, तीवल, कुणाल, संप्रति और एक पुत्री चारुमती थी। जिनमें पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा का नाम बौद्ध धर्म के प्रचारकों में रूप में प्रसिद्ध है। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्चिमी और पूर्वी दो भाग में बँट गया। पश्चिमी भाग पर कुणाल शासन करता था, जबकि पूर्वी भाग पर सम्प्रति का शासन था। लेकिन 180 ई. पू. तक पश्चिमी भाग पर बैक्ट्रिया यूनानी का पूर्ण अधिकार हो गया था। पूर्वी भाग पर वृहद्रथ का राज्य था। वह मौर्य वंश का अन्तिम शासक थे।
प्रवर्तित काल में इस विशाल भारतीय भू-भाग पर हिन्दू और भारत विरोधी पहले मुसलमानों ने और फिर अंग्रेजों ने क्रूर शासन किया। इस दौरान उन लोगों ने भारतीय अस्मिता, सभ्यता व संस्कृति को निरंतर नष्ट करने का ही उपक्रम किया है। बाद में उन्होंने भारतीय इतिहास को भी छेड़-छाड़ किया और इसे भ्रमपूर्ण बना दिया। ताकि आने वाली पीढ़ी को सही भारतीय इतिहास की जानकारी भी न प्राप्त हो सके। फलतः आज हम भारतीय जन अपने देश के इतिहास से ही अपरिचित हैं। हालाकि इतिहास के साथ छेड़-छाड़ ज्यादातर मौकों पर हिन्दू धर्म ग्रंथों, हिन्दू शूरवीर शासकों और स्मारकों के साथ ही किया गया है। फलतः आज हम भारतीय जन अपने देश के शूरवीरों को कायर, देशद्रोही, चोर, डाकू, लुटेरे आदि के रूप में देखने लगे हैं।