जयंती विशेष : सन्यासी योद्धा महर्षि दयानंद सरस्वती

‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ – महर्षि दयानंद सरस्वती

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। जैसा कि सर्वविदित है कि भारत-भूमि अति प्राचीन काल से ही सिद्ध-महात्माओं, महापुरुषों, देशभक्तों और समाज सुधारकों की पावन भूमि रही है, जिनके अतुलित योगदान से आज तक यह पावन भूमि देदीप्यमान रही है। यही कारण है कि अतीत काल से हमारी यह भारत-भूमि, ‘देव-भूमि’ के नाम से भी विख्यात है। इसी देव-भूमि के अनगिनत महापुरुषों में से आधुनिक भारत के एक महान विचारक, समाज सुधारक और स्वतंत्रता के पुजारी हुए थे, महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती महाराज जी। उनका बहुमूल्य सिद्धान्त रहा है, ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ – अर्थात ‘सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ।’ कालांतर में उन्होंने समाज और धर्म में व्याप्त कुसंस्कारों को दूर कर सामाजिक सद्वृतियों को गति देते हुए ही भारत सहित संसार को श्रेष्ठ बनाने के लिए ‘आर्य समाज’ की स्थापना की।

आधुनिक भारत के स्वप्न-द्रष्टा और महान समाज सुधारक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म फाल्गुन, कृष्णपक्ष, दशमी, संवत 1881, अर्थात 12 फरवरी, 1824 को वर्तमान गुजरात प्रांत के कठियावाड़ के राजकोट जिला में मोरबी नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता करशन जी लालजी तिवारी कर-कलेक्टर जैसे उच्च राजकीय पद के अधिकारी होने के साथ ही अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध अमीर, प्रभावशाली व सम्मानीय ब्राह्मण थे, जबकि उनकी माता यशोदाबाई एक धर्मिक घरेलू महिला थीं। बालक का जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण और भगवान शिव में पारिवारिक गहरी आस्था होने के कारण इनके माता-पिता ने इनका नाम ‘मूलशंकर’ रखा। घर की सुख-संपन्नता के वातावरण में इनका प्रारम्भिक जीवन बहुत ही एशो-आराम में ही बीता था। आगे चलकर पांडित्य प्राप्ति हेतु संस्कृत, वेद, शस्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।

कहा जाता है कि एक बार शिवरात्रि के दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक शिव मन्दिर में ठहरा हुआ था। रात्रि में परिवार के सारे सदस्य तो सो गये, पर मूलशंकर जागते रहे। पता नहीं, कब भगवान शिवजी जागृत हो जाएँ और उनके लिए चढ़ाया गया प्रसाद ग्रहण करने लगें! तभी उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे गये भोग-पदार्थ को चूहे बड़े ही मजे में खा रहे हैं। यह देख कर उनका ईश्वर के प्रति विश्वास डगमगाने लगा और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये अपने प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता है, वह मानवता की रक्षा भला क्या करेगा? अपने मन में उत्पन्न इस शंका का जिक्र उन्होंने अपने पिता व अन्य जनों से किया, पर उन्हें उसका कोई संतोषजनक उत्तर न मिला। तब उन्होंने अपने मन ही मन सोचा कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।

फिर ऐसे ही समय अपनी छोटी बहन और अपने चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु ने मुलशंकर के मन में जीवन-मरण सम्बन्धित गहरे विचार व प्रश्न उत्पन्न करने लगे। मूलशंकर के इस तरह के अजीबो-गरीब प्रश्नों को सुन-सुन कर उनके माता-पिता भी उनके संदर्भ में चिन्तित रहने लगें । बालक के कोमल मन को सांसारिकता की ओर आकृष्ट करने के लिए उन्होंने उनका विवाह किशोरावस्था में ही करने का निर्णय किया। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह जैसे सामाजिक बंधन तो उनके लिए बना ही नहीं है और फिर फाल्गुन कृष्णपक्ष चतुर्दशी, संवत् 1895 में शिवरात्रि के दिन मूलशंकर ने अपने जीवन को एक नया स्वरूप में देने के लिए प्रवृत हो गए। सत्य के अन्वेषण में वे अपने घर-परिवार को त्याग कर सच्चे गुरू की खोज में अपने अन्वेषण-मार्ग पर निकल पड़े। भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए वे श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में वेद के उच्चकोटि के ज्ञाता गुरु विरजानन्द के शरण में पहुँचे। गुरुवर के कठोर अनुशासन में बद्ध कर उन्होंने पाणिनी-व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का गहन-गम्भीर अध्ययन किया। अध्ययन के उपरांत गुरुवर ने दयानन्द से गुरू दक्षिणा स्वरूप संकल्प लिया, – ‘विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरु-दक्षिणा होगी।’

अपने श्रद्धेय गुरुवर विरजानन्द के आदेश को शिरोधार्य कर मूलशंकर ने अब स्वामी दयानन्द सरस्वती के रूप में भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक उत्थान जनित कार्य करते हुए अनेक स्थानों की यात्रा की। हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई। कलकत्ता में ‘ब्रह्म समाज’ के बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर से सम्पर्क स्थापित किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति, मातृभूमि की सेवा का भाव, धार्मिक-सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन तथा सम्पूर्ण भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति प्रेम-निष्ठा जगाने की भावना थी, जिसको उन्होंने बखूबी से निर्वाहन किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने एक ‘सन्यासी योद्धा’ बन कर तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों, रूढियों-बुराइयों व पाखण्डों का खण्डन व विरोध किया। सामाजिक उत्थान हेतु स्त्री-शिक्षा तथा विधवा-विवाह के लिए प्रबल आन्दोलन चलाये और प्रचलित बाल-विवाह तथा सती-प्रथा को निषेध करने के लिए जन आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने आत्म-विरोध तथा आत्म-निन्दा की परवाह न करते हुए भारतीय समाज को सुदृढ़ करने की निरंतर कोशिश की तथा जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि कर्म के आधार पर वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण पर जोर दिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती एक सफल समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, इसके अतिरिक्त वे पूर्णतः राष्ट्रवादी व्यक्तित्व भी थे। विदेशियों द्वारा भारत पर आधिपत्य का सबसे बड़ा कारण उन्होंने आलस्य, प्रमोद, आपसी वैमनस्यता, बाल-विवाह, मिथ्या-भाषावाद आदि कुकर्म को माना और राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को सुदृढ़ करने की कोशिश की। उन्होंने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करवाने के क्षेत्र में भी अपनी उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह की है। पराधीन भारत में “आर्यावर्त (भारत), आर्यावर्तियों (भारतीयों) का है” – यह कहने का साहस करने वाले प्रथम व्यक्ति स्वामी दयानन्द सरस्वती महाराज ही थे। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 की सम्पूर्ण योजना स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी रहे थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना को जागृत किया करते थे। हरिद्वार के कुम्भ मेला में शामिल होने के लिए उन्होंने आबू पर्वत से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की थी और रास्ते में स्थान-स्थान पर प्रवचन करते हुए देशवासियों में राष्ट्रवाद की भावना को जागृत करते रहें थे। स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का अलख जगाया। क्रान्ति की सम्पूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता, स्वामी दयानन्द सरस्वती के निरन्तर सम्पर्क में ही रहे थे। अंग्रेज शासकों ने प्रारम्भ में स्वामी जी को अपनी ओर मिलाने का भरपूर प्रयास किया। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक ने उन्हें कई प्रकार के प्रलोभन भी दिया। परन्तु स्वामी जी अपने निर्णय पर हिमालय सदृश अटल रहे। उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर जनरल को उत्तर दिया था –
‘मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो।’

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों के प्रचार, सामाजिक सुधार, शिक्षा के प्रसार और भारत की स्वंत्रता दिलाने जैसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वर्तमान मुम्बई के गिरगाँव में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932, (10 अप्रेल, सन् 1875) में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की । संसार का उपकार करना ही ‘आर्य समाज’ का मुख्य उद्देश्य रहा है। सामाजिक और धार्मिक उन्नति के लिए उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो’ जैसे भावनात्मक नारा दिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों का भाष्य किया, इसलिए उन्हें ‘ऋषि’ कहा जाता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित होने वाले महापुरुषों में लगभग हर वर्ग और हर कर्म-क्षेत्र से सम्बन्धित असंख्य लोग रहे हैं, जिनमें मैडम भीखाजी कामा, भगत सिंह, पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, चौधरी छोटूराम, पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के सिद्धांतों से प्रेरित होकर उनका एक प्रमुख अनुयायी लाला हंसराज ने सन् 1886 में लाहौर में ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की स्थापना की तथा एक अन्य अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द ने सन् 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की।

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर पहुँचे थे, वहाँ उनके नित्य ही प्रवचन हुआ करते थे। स्वयं महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर उनके प्रवचन सुना करते थे। कहा जाता है कि राज दरबार में नन्हीं नामक वेश्या का राज-काज में अनावश्यक हस्तक्षेप को उन्होंने मना कर दिया था। इससे नन्हीं स्वामी जी के विरुद्ध हो गई थी। उसने स्वामी जी के रसोइए कालिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ काँच डलवा दिया था। घटना के बाद ही उसने स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध भी स्वीकार कर उनसे क्षमा माँगी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे माफ करते हुए उसे पुलिस से बचाने के लिए राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पाँच सौ रुपए देते हुए वहाँ से विदा कर दिया। स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया। पर उनकी तबियत और अधिक खराब होने लगी, तो फिर उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक बहुत विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका।

स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का देहावसान शरीर 30 अक्टूबर, 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हो गई। उनका पार्थिव शरीर पंचतत्व में तो विलीन हो गया, परंतु वे अपने पीछे छोड़ गए एक बहुमूल्य सिद्धान्त, ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ – अर्थात ‘सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ।’ उनके अन्तिम शब्द थे – “प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।”

(महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जयंती, कृष्णपक्ष, दशमी तिथि, 5 मार्च, 2024)

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail.com

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