।।आतप।।
चंद्र किरण
आतप घन में है धरा,
जलता जग है जान।
बेचैनी अब बढ़ रही,
मनुज रहे अनजान।
पेड़ धरा पर रो रहे,
मनुज करे अभिमान।
आतप से जलती धरा,
मानव अब तो जान।
आतप मन होता तभी,
अपना जाता दूर।
मन कानन झुलसा करे।
करे न कोई पूर।
मांँ की ममता है कहांँ,
आतप मन है आज।
याद हमेशा है गिरह,
देती वह आवाज।
प्रिय कहीं जो बिछड़ गए,
झुलसे आतप अंग।
दिल उपवन पतझड़ सहे।
उड़ता सरी पतंग।
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