सेवा (लघुकथा) : माला वर्मा

“थोड़ा चावल और ले लीजिए अम्मां जी !”
“नहीं बहू, अब पेट भर गया…।”
“ले लीजिए न एक मुट्ठी… एकदम गर्म है चावल… ।”
“अच्छा, अब इतना स्नेह से कह रही है तब लेती आ, पर हां, एक मुट्ठी से ज्यादा मत लाना…।”
जाते-जाते बहू पलटी तथा फिर पूछने लगी, ” अम्मां जी साथ में एक हरी मिर्च और शुद्ध घी भी लेती आऊं? आपको बहुत पसंद है…।”
“अच्छा बहू… उसे भी लेती आ।”
बहू तेजी से रसोईघर की ओर लपकी। मैंने सोचा चलकर एक गिलास पानी भी लेती ही आऊं अम्मां जी के लिए। वहां बहू पतीले में कलछुल लगाए बड़बड़ा रही थी, “कलमुंही… नासपीटी बुढ़ापे में कहीं इत्ता खाना खाया जाता है? जरा-सा हंस के क्या पूछ लिया अपनी सहेली के सामने, संग-संग जुबान से टपक गया… हां लेती आ। हमारा भंडार-खत्म करके ही लगता है बुढ़िया टें बोलेगी…।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five × three =