मैथिली शरण गुप्त जी की जयंती पर विशेष…

‘सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।’

श्री राम पुकार शर्मा, कोलकाता। ऐसी देव तुल्य अभिलाषा को अपने मन में धारण कर भारतीय सांस्कृतिक तत्वों को परस्पर समन्वित कर हिंदी साहित्य के नवजागरण को राष्ट्रीय काव्यधारा में परिणत करते हुए उसे उच्चादर्श के श्रेष्ठ बुलंदियों तक पहुँचाने वाले माँ भारती के कर्मठ साधक राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ही थे। उन्हें हिन्दी साहित्य में ‘खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम महत्वपूर्ण कवि’ और ‘दद्दा’ के नाम से भी जाना जाता है। फलतः देश भर में उनके पावन जन्म-दिवस ‘३ अगस्त’ को ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। आज उनकी १३७वीं पावन जयंती पर हम उन्हें हार्दिक सादर नमन करते हैं।

मैथिली शरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी के चिरगाँव में ३ अगस्त १८८६ को सेठ रामचरण गुप्त और काशीबाई देवी की तीसरी संतान के रूप में हुआ था। इनका बचपन का नाम ‘मिथिलाधिप नन्दशरण गुप्त’ था। पर विद्यालय के रजिस्टर में पूरा नाम न आ पाने के कारण उनका नाम ‘मैथिली शरण गुप्त’ कर दिया गया था, जो आजीवन उनका संज्ञासूचक बना रहा। इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त एक वैष्णवी भक्तकवि थे और ‘कनकलता’ उपनाम से भक्ति-भाव संबंधित रचना किया करते थे। उनके द्वारा रचित “रहस्य रामायण” एक प्रसिद्ध रचना है।

अपने विशेष व्यक्तित्व के कारण वे तत्कालीन ओरछा महाराज द्वारा सम्मानित और समादृत भी थे। मैथिली शरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा उनके परिजनों की स्नेह-छाया में हुई। अंग्रेजी पढ़ने के लिए झाँसी के ‘मेकडोनाल्ड हाई स्कूल’ में भर्ती हुए, पर वहाँ की सनातन विरूद्ध शिक्षा-पद्धति में उनका मन न रमा। अतः जल्दी ही घर लौट आए। ऐसे ही समय उनका प्रथम विवाह ९ वर्ष की आयु में १८९५ में हुई, पर १९०३ में पत्नी की मृत्यु हो गई। तब उनका दूसरा विवाह १९०४ में हुआ था, लेकिन उस पत्नी की भी मृत्यु हो गई।

इसी समय उनके पिता और फिर उसके दो वर्ष बाद ही उनकी माता की भी मृत्यु हो गई। ऐसे में इनका देख-रेख उनके चाचा भगवानदास गुप्त जी ने स्नेह-सम्भार के साथ किया। वे तीसरा विवाह नहीं करना चाहते थे, पर पारिवारिक ज्येष्ठ-जनों के आग्रह पर १९१४ में उनका तीसरा विवाह सरजू देवी के साथ हुआ। समयानुसार उन्हें नौ संतानें प्राप्त हुईं, परंतु उनमें से अंतिम ऊर्मिलचरण गुप्त ही जीवित रहा। घर पर ही मुंशी अजमेरी जी के मार्ग-दर्शन में मैथिली शरण गुप्त की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था हुई।

उन्होंने अंग्रेजी, बंगला, उर्दू-फारसी, इतिहास, पुराण, रीति ग्रंथों से लेकर संस्कृत के भास, कालिदास और फिर बंगला के प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं को गंभीरता से अध्ययन किया। परिणाम अच्छा ही हुआ। अध्ययन के साथ ही उनकी काव्य-प्रतिभा भी अंकुरित होने लगी, जो कवि पिता से प्राप्य राम-भक्ति, काव्य-सृजन की प्रतिभा और नारी-सम्मान की त्रिगुणात्मक भावना को ग्रहण कर पहले तो ‘स्वर्णलता’ उपनाम से, फिर किशोरावस्था में ‘रसिकेश’, ‘रसिकेंदु’, ‘मधुप’, ‘नित्यानंद’ और ‘भारतीय’ नामों से तरुणाई में ही ब्रज भाषा में काव्य-स्वरूप में लहराने लगीं। बाद में साहित्यिक युग-प्रवर्तक आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की सानिध्यता तथा निर्देशन में वह समुचित विकसित होकर सुंदर साहित्यिक फूलों और फलों के रूप में पुष्ट होकर साहित्य जगत को सुवासित करने लगीं।

कविवर मैथिली शरण गुप्त, आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना काव्य-गुरु ही मानते थे। उनकी प्रेरणा से ही इन्होने खड़ी बोली को अपनाकर उसे नवीन समर्थ काव्य-भाषा के रूप में निर्मित किया। फलतः कविताओं में खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का मूल श्रेय राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त को ही जाता है। उन्होंने अपनी ‘साकेत’ महाकृति के आरम्भ में ही ‘गुरु-वन्दना’ स्वरूप आचार्य ‘द्विवेदी जी’ के प्रति अपनी प्रेम-निष्ठा को प्रकट करते हुए लिखा है-
‘करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद।
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।’

कविवर मैथिली शरण गुप्त मूलतः बहिर्मुख काव्य-सृजनकर्ता थे। उनकी रचनाओं में राष्ट्रप्रेम, मानवीय एकता, प्रेम-सौहार्द्र और त्याग के विविध आयाम सर्वत्र ही दिखाई देते हैं। १९०५ में मात्र १९ वर्ष की अवस्था में इनकी पहली कविता ‘हेमंत’ “सरस्वती” पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। फिर १९०९ में ‘रंग में भंग’ इनकी प्रथम प्रकाशित मौलिक रचना है, जिसमें कवि ने बूंदी और चितौड़ नरेशों के माध्यम से बताया है कि व्यर्थ के मान-अपमान की भावनाएँ निज और राष्ट्र के विनाश के कारण बनती हैं। फिर १९१० में प्रकाशित ‘जयद्रथ वध’ इनकी दूसरी खंड काव्य-कृति है, जिसमें वीर और करुणा रस का अद्भुत संचयन है। तत्पश्चात १९१२ में ‘भारत-भारती’ काव्य-कृति प्रकाश में आया, जिसने प्रथम बार कविवर मैथिलीशरण गुप्त जी को कवि की मान्यता दिलाई। कहा जाता है कि ‘भारत-भारती’ को पढ़ने के लिए उस समय लाखों लोग हिन्दी पढ़ने के लिए प्रवृत हुए थे। इसमें उल्लेखित राष्ट्रीयता से भाव-विभोर होकर राष्ट्र-पुरुष महात्मा गाँधी जी ने १९१६ में ही इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से विभूषित कर दिया था। जिसे भारत के स्वतंत्र होने के बाद प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इनकी राष्ट्रीय चेतना से समन्वित काव्य-कृतियों के आधार पर सरकारी तौर पर “राष्ट्रकवि” के मानक पद को उन्हें प्रदान किया।

‘सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है,
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारत वर्ष है!’
१९३१ में प्रकाशित ‘साकेत’ कविवर ‘गुप्त’ जी की सर्वाधिक सफल कृति मानी जाती है, जिसमें कवि ने अपने काव्य-गुरु आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से रामकथा की ‘उर्मिला’ और ‘कैकयी’ जैसे उपेक्षित पात्रों को काव्यमय उद्धार कर ‘माता न कुमाता, पुत्र कपुत्र भले ही’ जैसी सनातनी सिद्धांत की गरिमा को स्थापित किया है। इस महान कृति में वास्तव में कवि और उनके पात्रों की अंतरात्मा पवित्र काव्य-सलिला के रूप में अविरल प्रवाहित होती दिखाई देती है, जिसमें अध्ययन-मनन की पवित्र डुबकी लगाकर सहृदय पाठक परमानन्द को प्राप्त करते रहते हैं।

‘युग-युग तक सुनता रहे जीव यह मेरा, धिक्कार! उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।’
‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई, जिस जननी ने जना है भारत-सा भाई।’
समाज में नारियों की दयनीय अवस्था तथा असहायों की पीड़ा ने मैथिली शरण गुप्त के कवि-मन को व्यथित कर रखा था, फलतः उनके अनेक काव्य-ग्रंथों में नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति झलकती है। यही कारण है कि ‘यशोधरा’ एक चम्पूकाव्य होते हुए भी वात्सल्यता, करुणा, भाव-प्रवणता, रागात्मकता, शांतरस और शिल्प-विधान के उचित पोषक को प्राप्त कर ‘साकेत’ के सामान ही एक प्रसिद्ध रचना बन गई। यह ज्ञान प्राप्ति के अन्वेषी सिद्धार्थ की पत्नी ‘यशोधरा’ के विरह-वेदना जनित कातर क्रंदन काव्य-गाथा है।
‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी। आँचल में दूध और आँखों में है पानी।’

१९५२ में प्रकाशित ‘जय भारत’ महाकाव्य ‘साकेत’ के समान ही मैथिलीशरण गुप्त की एक विशालकाय महाकाव्य है, जिसका सृजनाधार ‘महाभारत कथा’ है। इसमें ४७ खण्ड हैं। महाकवि ने नहुष के आख्यान से आरंभ करके पांडवों के स्वर्गारोहण तक की घटना को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में छंद-बद्ध किया है। इस महाकाव्य ने ही हिन्दी साहित्य-जगत में मैथिलीशरण गुप्त जी को एक विशिष्ठ कवि के रूप में मान्यता प्रदान कारवाई।
‘जीवन-यशस्-सम्मान-धन-सन्तान सुख मर्म के;
मुझको परन्तु शतांश भी लगते नहीं निज धर्म के!’

देश भर में फैली स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव से कविवर मैथिलीशरण गुप्त भला अछूते कैसे रह जाते? तीस के दशक में वे राष्ट्रनेता महात्मा गाँधी जी के सम्पर्क में आये। १६ अप्रेल, १९४१ को उन्हें व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। पहले उन्हें झाँसी और फिर आगरा जेल भेज दिया गया। परंतु उनके विरूद्ध कोई आरोप सिद्ध न होने के कारण सात महीने के बाद ही उन्हें जेल से छोड़ दिया गया। स्वतंत्रता संग्रामी लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श व्यक्तित्व रहे, जिनके आदर्श ने उनके जीवन में राष्ट्रीयता के भाव भर दिए थे। इसी कारण उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय विचारधारा के साथ ही भारतीय संस्कृति के आग्रही भाव भी व्यक्त हुए हैं।
‘संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।’

मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने साहित्य-सृजन के ५९ वर्षों में हिंदी साहित्य जगत को सामाजिक, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, मानवीय धरातल पर पुनर्स्थापित करती वर्णन-वैविध्य, विषय-वैविध संबंधित लगभग ७४ श्रेष्ठ रचनाएँ दी, जिनमें दो महाकाव्य, १७ गीतिकाव्य, २० खंड काव्य, चार नाटक और अनगिनत गीतिनाट्य शामिल हैं। उनमें रंग में भंग, साकेत, जयद्रथ-वध, भारत-भारती, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, किसान, कुणाल गीत, गुरुकुल, जय भारत, मेघनाद वध, विरहिणी व्रजांगना, वीरांगना, स्वप्न वासवदत्ता, रत्नावली आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

मैथिलीशरण गुप्त का सम्पूर्ण जीवन ही कवित्वमय था। रामानंदी श्री संप्रदाय में दीक्षित होने के कारण वे जीवन भर कंठ से कंठी और मस्तक पर तिलक मंडित ही रहे। परंतु उन्होंने कभी भी किसी भी मतवाद के प्रति उपेक्षा या फिर अपने मत के प्रति आग्रह भाव प्रदर्शित नहीं किया है। स्वभाव, रहन-सहन और खान-पान की दृष्टि से वे बहुत ही सरल और सीधे-साढ़े थे। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका जरा भी विश्वास न था। भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप के आग्रही समाज में पतित-दलितों के प्रति उनमें प्रेम-भाव थे।
‘उत्पन्न हो तुम प्रभु पदों से सभी को ध्येय हो।
तुम हो सहोदर सुरसरि के, चरित जिसके है।’

मैथिली शरण गुप्त जी को कला और साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान देने हेतु १९५२ में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दी गई और १९५४ में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें ‘हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार’, ‘साकेत’ पर इन्हें ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ तथा ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट्. की उपाधि प्रदान की।

मैथिली शरण गुप्त आजीवन अपने कर्तव्य कर्मों के सम्पादन में निष्ठापूर्वक लगे रहे। अनवरत परिश्रम और अधव्यवसाय ने उनके जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें काफी थका दिया था। उसपर देश की राजनीतिक उथल-पुथल और दिशाहीनता ने भी उन्हें बेचैन कर दिया था। नतिजन अंतिम दिनों में वे कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे, लेकिन वे ऐसे समय में भी अपने साहित्य-कर्म से कभी विमुख न हुए थे। ठीक ऐसे ही समय १९६३ ई. में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने उनके हृदय पर अपूर्णनीय आघात पहुँचाया। १२ दिसम्बर १९६४ को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का वह जगमगाता तारा सदा के लिए अस्त हो गया। इस प्रकार कर्ममय जीवन व्यतीत करते हुए चिरगांव में ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त चिरनिद्रा के आगोस में सदा के लिए चले गए।

परन्तु मैथिली शरण गुप्त जी अपनी अद्वितीय रचनाओं के माध्यम से अमरत्व को प्राप्त किए हुए हैं। आज भी करोड़ों साहित्य-प्रेमियों के दिलों में वे अपनी रचनाओं के रूप में विराजमान हैं। हालाकि वे तो स्वयं आजीवन साहित्य साधना करते रहे, पर वास्तव में उनकी साधना से हिन्दी निज साहित्य-भंडार को समृद्ध करती रही थी, जिससे कालांतर में हिन्दी साहित्य-प्रेमी अपने साहित्यिक मार्ग को प्रशस्त कर सकें।
(मैथिलीशरण गुप्त जयंती, 3 अगस्त, 2022)

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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