वे अनपढ़ थे और हम शिक्षित हैं!

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । मेरे बचपन का बहुत कुछ अंश गाँव की ही गलियों, शस्य-श्यामल और स्वर्णाभ खेत-खलिहानों में ही बीता है। वे ही हमारे खेल-कूद के विस्तृत मैदान हुआ करते थे। बिन पैसेवाले खेल यथा; कुश्ती, भाग-दौड़, गुल्ली-डंडा, डाल-पात, नहर-पइन में तैराकी आदि ही हमारे प्रिय खेल-कूद हुआ करते थे। गाँव भर के सभी लोग जाति-धर्म के बंधन से परे हमारे दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ-दीदी, भैया-भाभी, भाई-बहन हुआ करते थे। गाँव भर के हमसे उम्र में बड़े प्रायः सभी लोग हमारे अभिभावक हुआ करते थे।

जिस किसी ने भी चाहा, एक-आध झापड़ लगा कर हमें अनुशासित कर दिया। विरोध करना तो हम जानते ही न थे। घर पहुँचने पर उनकी शिकायत करने पर बाबूजी द्वारा जमकर शरीर की मरम्मत, एक-आध बेला के भोजन-पानी बंद और घर में प्रवेश बंद तो अलग से। पर ऐसी स्थिति में हमारे लिए गाँव भर के सभी दुआर खुले रहते थे। जिस भी दुआरे हम पहुँच जाते थे, उस द्वार पर माँ-बाप की निष्ठुरता की उलाहना देते हुए मना करने पर भी जोर जबरदस्ती भर पेट भोजन करावा ही दिया जाता था। सहानुभूति के स्वर भी मिल ही जाया ही करते थे।

कारण? क्या कहा जाए? तब के हमारे लोग आधुनिक शिक्षा से वंचित, अनपढ़ और क्या सचमुच ही अज्ञानी थे? उसी समय से मैं कई बार देखते आया हूँ कि खेत की जुताई के समय हल खींचते हुए बैल जब गोबर-मूत्र त्याग करने की स्थिति में होते थे, तो किसान-हलवाहा कुछ देर के लिए हल चलाने की प्रक्रिया को रोक करके बैलों को खड़ा किए रहते और उन्हें मल-मूत्र त्यागने का भरपूर मौका दिया करते थे। बैल आराम से वह कर्म कर लिया करते थे। क्योंकि बैल उनकी निगाह में कोई जानवर मात्र न होकर मानवीय संवेदनायूक्त हुआ करते थे।

दोपहर के समय जब किसान भोजन करने के लिए उद्धत होते थे, तो सबसे पहले वह अपने बैलों को पेड़ की छाँव में लाकर उसे पानी पिलाकर उसके सम्मुख चारा डाल दिया करते थे। उसके पीठ और कंधों को प्यार से सहलाते थे। उससे पिता तुल्य स्नेह से बातें किया करते थे। फिर खुद भोजन करते। क्या मजाल कि बैल देवता पानी भी न पिए और किसान भोजन कर लेवे!

आज अधिकांश लोगों को घी का दर्शन मूलतः पूजा-पाठ या कर्म-काण्ड के दौरान दीया जलाने के अवसर पर ही हो पाता है। शुद्ध या अशुद्ध, यह तो बाद की बात है। लेकिन उस समय अर्थात लगभग पाँच-छः दशक पूर्व खेत की जुताई या खेत-खलिहान से अनाज की ढुलाई जैसे कठिन कार्य के दिनों में, हर दो-तीन दिनों के अंतराल पर किसान अपने बैलों को आधा-आधा सेर तक शुद्ध देसी घी पिला दिया करते थे। तर्क देते कि इन्हीं बैलों से तो उनकी जीविका चलती है।

बैल जब बूढ़ा हो जाता था, तब उसे कसाइयों के हाथों बेचना सामाजिक शर्मनाक अपराध की श्रेणी में माना जाता था। फलतः बूढा बैल कई सालों तक घर की दुआरी पर खाली बैठा चारा खाता रहता और सेवा पाते रहता था। वह बैल न होकर घर का सदस्य हुआ करता था। उसके मालिक अनपढ़ किसान का मानवीय तर्क होता था कि इतने सालों तक हमने इसकी माँ का दूध पिया है। इतने सालों तक इसकी ही कमाई खाई है। इसकी कमाई से ही बेटे-बेटियों की ब्याह-शादी की है। अब इसे बुढापे में कैसे छोड़ दें? कैसे कसाइयों को दे दें, काट देने के लिए?

और जब बैल मर जाता, तो किसान परिवारजन उसके याद में फफक-फफक कर रोने लगते थे। घर में चूल्हा-चौकी न जलता था। कई-कई दिनों तक उसका शोक मनाया जाता था। घर में होने वाले सभी शुभ कार्यों को स्थगित कर दिया जाता था। इतना स्नेह हुआ करता था, उसे अपने बैलों से।

टिटहरी नामक पक्षी खुले खेत की मिट्टी पर ही अक्सर अपने अंडे दिया करती है। वहीं उस पर बैठ कर उसको सेती भी है। किसान द्वारा हल चलाते और अपने सामने आते देख वह टिटहरी कुछ संकेत देने के लिए चिल्लाने लगती, पर स्थान न छोड़ती थी। किसान-हलवाहा भी उसके संकेत को भली-भाँति समझ जाते थे कि वहाँ उसके अंडे या फिर छोटे-छोटे बच्चे हैं। फिर वे उसके अंडों या बच्चों वाली जगह पर बिना हल चलाए ही, उसे खाली छोड़ दिया करते थे। किसान को अपनी उपज से कहीं अधिक उस छोटे-से जीव और उसके बच्चों की रक्षा की चिंता रहती थी। कहीं जीव हत्या न हो जाए? कोई पाप न लग जाए?

किसान अपने खेत-खलिहानों के आस-पास के मेढ़ और खुले स्थान पर कई खाद्य फलदायक पौधों को लगाया करते थे। क्या यह सोचकर कि जब इसमें फल लगेंगे, तो उन्हें बेचकर वह मालामाल बन जाएगा? नहीं! कदापि नही! बल्कि यह सोचकर कि इसकी छाया में पशु-पक्षी या राहगीर कुछ क्षण के लिए बैठ कर आराम पाएंगे। इसके फल बच्चों के मन को हर्षाएंगे। उसमें अपने लाभ-हानि से कहीं अधिक ‘पर-सेवा’ की भावना हुआ करती थी। उसे संतुष्टि इस बात की होती थी कि उस पौधे और उसके फल के माध्यम से उसका नाम उसके बाद भी लिया जाएगा। कारण? क्या कहा जाए? तब के हमारे किसान आधुनिक शिक्षा से वंचित, अनपढ़ और क्या सचमुच ही अज्ञानी थे?

तब दरवाजे पर देर-सबेर कोई न कोई अतिथि या कोई अपरिचित राहगीर आ ही जाते थे। भोजन-पानी के लिए मना करते रहने पर भी, घर की गृहिणी चट-पट चावल-दाल सहित तीन-चार तरह की सब्जियाँ तैयार कर परोस दिया करती थी। और इनमें से यदि कोई महिला अतिथि होती, तो फिर वह तो अंतः प्रकोष्ठ की सहभागिनी बन जाया करती थी। फिर उनके प्रस्थान के पूर्व पुनः स्वादिष्ट भोजन तैयार। बिना भोजन किए अतिथि की विदाई! असंभव! फिर महिला अतिथि को अपनी बहु-बेटी के समान ही उसके आँचल में अनाज और द्रव्य देकर पुनः आगमन के आग्रह के साथ विदाई। इतना स्नेह! इतना अपनापन अपरिचितों से भी हुआ करता था।

आँधी-तूफान या फिर किसी कारणवश किसी का पुराना छप्पर गिर जाता था, तो देखते ही देखते बिन बोले ही कई सहयोगी हाथ आगे बढ़ आते थे। कोई बाँस लेकर तो कोई पुआल लेकर पहुँच जाया करता था। कुछ ही घंटों में नया छप्पर तैयार। एक का बोझ कई कंधों पर बँटकर हल्का हो जाता था। फिर देखते ही देखते ही बाँस भर की ऊँचाई पर वह छप्पर चढ़ा दिया जाता था।

ब्याह-शादी या मरनी संबंधित वृहद काज-परोजन। पर कोई विशेष चिंता की बात नहीं! गाँव का कोई व्यक्ति बड़ा कडाह लिये उपस्थित, कोई बड़ी हाड़ी लिये, कोई हरी साग-सब्जी लिये, तो कोई चावल-दाल लिये और कोई आटा लिये समय से पूर्व ही उपस्थित। सभी परस्पर हाथ बटाते हुए काज-परोजन संपन्न कर दिए। कोई पैसे-कौड़ी की बात नहीं। कोई एहसान जताने की भी बात नहीं। गरीब व्यक्ति को पता भी न चल पाता कि इतना बड़ा काज-परयोजन कैसे सम्पन्न हो गया!

छप्पर चढ़ना, मरनी में कंधा देना, ब्याह-शादी या गमगीन के कार्यों में हाथ बँटाना, कोई मामूली कार्य थोड़े ही होते थे! वे सब के सब तो धर्म-पुण्य के कार्य हुआ करते थे। ऐसे मौके को हाथ से कैसे जाने देवे? कदापि नहीं! कारण? क्या कहा जाए? तब के हमारे लोग आधुनिक शिक्षा से वंचित, अनपढ़ और क्या सचमुच ही अज्ञानी थे?

सही बात तो यह है कि जिसे हम आधुनिक शिक्षा कहते हैं, उससे तो वे वास्तव में वंचित ही थे। तभी तो उनमें मनुष्य तो क्या, बल्कि जीव-जंतुओं के लिए भी गहरी संवेदना हुआ करती थी। तभी तो लोग अंजान गाँवों में भी अंजान लोगों के बीच अपने प्रियजनों जैसे ही ‘अतिथि देवो भवः’ के सम्मान को प्राप्त किया करते थे। पहले बड़कपन का अर्थ ही ‘निज स्वार्थ त्याग कर पर-सेवा की भावना’ हुआ करता था। अतः अधिकांश लोग अभाव में भी संतुष्ट और खुशहाल रहा करते थे।

आज हम तथाकथित आधुनिक शिक्षा से शिक्षित हैं। ‘मैकालेवाद’ जनित कई डिग्रियाँ हमारे पास संचित हैं। उसी के अनुकूल घर में धन-संपदा भी मौजूद हैं। पर यह भी सत्य है कि उसी के अनुपात में हम स्वार्थी और निष्ठुर भी होते गए हैं। हमारे रंचमात्र त्याग से भी यदि किसी जीव का प्राण बच जाए, तो भी हम अक्सर संकुचित होकर अपनी राह पर आगे बढ़ जाते हैं। अतिथि या अपरिचित तो क्या? बल्कि हम अपने भाई-बंधू या रिश्तेदारों को भी अपनी ओर आते देख कर घबरा जाते हैं। अपने बच्चों से कह दिया करते हैं कि उनको आते ही घर में मेरे न होने की बात कह देना। रुकना चाहे, तो ‘हम सभी को बाहर ‘आउट ऑफ स्टेशन’ जाना है’ कह कर उन्हें चलता कर देना।

बगल के कमरे में बीमार पड़े अपने स्वजनों के पास पहुँचने में भी हमें दिनों-सप्ताह लग जाते हैं। उनके लिए एक-एक पैसा का खर्च भी अपने शरीर से माँस काटने-सा कष्टदायक प्रतीत होता है। क्या करें? जेब और शरीर दोनों ही संकुचित मन के पर्याय बन गए हैं। सर्वदा चिंता सताती है कि कोई अतिरिक्त बोझ इन दोनों पर न पड़ जाए। हमारे एकाकी पारिवारिक जीवन के सुख-चैन में कोई बाधा न पहुँच जाए।
कारण? क्या कहा जाए? हम आधुनिक शिक्षा से सम्पन्न और शिक्षित जो कहला रहे हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा, (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल संपर्क – rampukar17@gmail.com

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