सौमित्र मोहन की कविता : मैं बड़ा हो गया हूँ

।।मैं बड़ा हो गया हूँ।।
सौमित्र मोहन

मुझे लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ
सफ़ाई से झूठ बोलता हूँ
लोगों की कलई खोलता हूँ
बहुरूपियों के बीच डोलता हूँ
अपने रिश्तों में जहर घोलता हूँ
मुझे लगता है मैं बड़ा हो गया हूँ।

अब कहाँ वो खिलखिलाना, ठहाके लगाना
वो खुल के हँसना और सबको हँसाना
वो दादी के क़िस्से, वो मासूम फसाना
न जाने कहाँ गया वो गुजरा जमाना
नये जमाने में फँस गया हूँ
हर रोज रोटी कमाने में लग गया हूँ
शायद मैं बड़ा हो गया हूँ।

ख़ुदा ने एक चेहरा दिया था,
और एक जबान दी थी
अब कई चेहरे लेकर घूमता हूँ
जाने कितनी जबानें बोलता हूँ
फिर भी कोई पहचानता नहीं
और न ही समझ पाता है
एक पहचान है अपनी आज,
फिर भी वजूद खो बैठा हूँ
मुझे क्यूँ लगता है ऐसा
जैसे मैं बड़ा हो गया हूँ।

ज़िंदगी की जद्दोजहद में फँसा
छटपटाता रहता हूँ
इतनी कामयाबियाँ हासिल कीं
फिर भी लड़खड़ाता रहता हूँ
जमाने की कसमकस से
हर वक्त घबराता रहता हूँ
ख़ुदा ने दिया है इतना सब कुछ
फिर भी क्यूँ अधूरा सा लगता हूँ
शायद मैं अब बड़ा हो गया हूँ।

ऊँचाइयों पे बैठा हूँ
पर जमीन से डर लगता है
बड़ा सा आशियाना बनाया है मैंने
फिर भी अच्छा तो
मिट्टी का वो घर लगता है
ख़ुदा के हुक्म से आया हूँ इस जहां में
पर जाने किन हुक्मरानों से डरता हूँ
कहीं मैं बड़ा तो नहीं हो गया हूँ।

कभी मुँह की खाता हूँ
कभी कड़वे घूँट पीता हूँ
कभी मैं धूल चाटता तो
कभी खून के आंसू पीता हूँ
या कभी गम को खा जाता हूँ
मुँह का ज़ायक़ा बिगड़ सा गया है
शायद ये बंदा बड़ा हो गया है।

ज़िंदा तो हूँ मैं आज
पर रोज थोड़ा-थोड़ा मर रहा हूँ
रोज की आपाधापी में सड़ रहा हूँ
ख़ुदा का घर दूर है बहुत अभी भी
उस ओर मैं धीरे धीरे बढ़ रहा हूँ
हाँ, मैं बड़ा हो रहा हूँ।

अभी भी अंदर का अहसास ज़िंदा है
मेरा जमीर, मेरी पहचान ज़िंदा है
दिन गुजर रहा है, रात आनेवाली है
एक नई सुबह साथ लानेवाली है
चलो, ज़िंदगी को फिरसे समझते हैं
बड़े होने के नये मायने ढूँढते है
जहां खुद को साफ देख पायें
ऐसे कुछ आयने ढूँढते हैं॥

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सौमित्र मोहन, कवि

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