डॉ. तेजस्विनी दीपक पाटील की कविता

वक्त के साथ तुम,
निर्लिप्त से आगे निकल जाते हो।
और मैं, अतीत की सिलवटों में
पड़ी रहती हूँ, गुमसुम।

बहते रहते हो तुम उस असीम तक
बिना पीछे मुड़कर देखते हुए।
और मैं, एक किनारे पर बंधी हुई
कश्ती की तरह, गुमनाम।

बाँसुरी की धुन जैसे
बस जाते हो तुम,
जंगल के हरेक फूल और पत्तेपर।
और मैं, तितली की तरह
इतराती रहती हूँ,
उसी फूल पर
जिसे चूमकर निकले थे तुम उस पार।

@तेजस्विनी

डॉ. तेजस्विनी दीपक पाटील

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